कविता
सुबह से शाम तक
जद्दोजहद में रहता हूं
घर में नून -तेल के
इंतज़ाम में रहता हूं
समग्र घर के छत पर
तना आकाश सा रहता हूं
हां मैं पुरुष !
संवेदनाओं को समेटे
सख्त पाषाण सा रहता हूं,
मर्म को मौन का जामा पहना
गुमसुम गुंथी गुत्थियों को
सुलझाने में लगा रहता हूं,
मां, पत्नी,बेटी बहु की
खुशियों की चाह लिए
रहता हूं…….!
हां मैं पुरुष !
दिल में दर्द और आह
लिए रहता हूं…!
व्यक्त नहीं कर सकूं
लेकिन… दिल में
चाह लिए रहता हूं!
बोझ जिम्मेदारियों की
लाद कर पीठ पर….
संघर्ष पथ पर
अनवरत चलता रहता हूं!
आर्यावर्ती सरोज “आर्या”
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)