Monday, July 1, 2024
साहित्य जगत

ज़िन्दगी सबकी बदलती जा रही है…

 

ज़िन्दगी सबकी बदलती जा रही है
यह इसी से ही उलझती जा रही है…

कर रहा है आदमी खुद ही शिकायत
आदमी की प्रीति मरती जा रही है….

ख्वाहिशें होती कहाँ..पूरी यहाँ सब
उमर तो हर-रोज ढलती जा रही है…

बंद करना चाहते हो तुम जिसे घर
वह दरख़्तों से निकलती जा रही है…

पर मिलेगा हर परिन्दों को नया अब
क्या हुआ यह बात टलती जा रही है…..

सीख पुरखों का नहीं है आचरण में
संस्कृति की नींव धंसती जा रही है…

बोलता कोई नहीं क्यों इस चलन पर
पीढ़ियाँ जिस पर फिसलती जा रही है…

लोग सच कहते उन्हीं को खूबसूरत
महफिलो में जो महकती जा रही है….

देख उनकी चालबाजी, जुल्म ‘राही’
भट्टियां नफ़रत दहकती जा रही है….

डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही’
(बस्ती उ. प्र.)