Saturday, May 18, 2024
साहित्य जगत

एक ग़ज़ल

-देखकर मौसम पुराना आज भी बाहर पुनः
ज़िन्दगी ने ओढ़ ली है सब्र की चादर पुनः

अवसरों पर चूकना भी हार का पर्याय है
लौटकर आता है मुश्किल से वही अवसर पुनः

क्या मिलेगा क्या पता इस बार की ख़ैरात में
आज गूँजा है सियासी द्वार पर सोहर पुनः

बस यही मर्दानगी है इस तरह रक्खो इसे
ये अहिल्या हो न पाए अब कभी पत्थर पुनः

फीस कपड़ा दूध राशन खर्च पूरे माह का
याद आया है सबेरे इस लिए दफ़्तर पुनः

हरीश दरवेश
बस्ती (उत्तर प्रदेश)