Sunday, May 5, 2024
साहित्य जगत

आस पर आश्रय का एक भावप्रवण गीत….

 

लाख हों काँटे बिछे पर
घुँघरुओं ने गीत गाये,
टीस पर मुस्कान लिख दी
अश्रु पलकों में छुपाये,
आस का दीपक बुझा तो दो कदम कैसे चलेंगे ?
पाँव अपनी बेड़ियों को फिर भला कैसे छलेंगे ?

नील नभ में पर पसारे चेतना नें मुक्तिपथ पर
आवरण की हर सतह तक बेड़ियाँ स्वीकार कर लीं,
नित नवल आकार लेते स्वप्न की आश्वस्तियों में
सब विषमताएं समय की सहज अंगीकार कर लीं,

मधुर सारे स्वप्न टूटे
सिर्फ निष्ठुर सच बचे तो,
ओस जैसे पंखुरी पर थम गये दो बूँद आँसू
बिछुड़ स्वर्णिम रश्मियों से, पत्थरों में क्या ढलेंगे ?
आस का दीपक…

आरती के दीप जैसा प्रेम का आभास थामे
श्वास प्रिय की वंदना में मौन की सुमिरनि फिराती,
कंठ में विष को समोये, हृदय में अमृत सँजोये
सुप्ति में गिरते क्षणों को मन्त्र जागृति का सुनाती,

दीप पावन आरती का
फूँक कर चाहे बुझा दो,
किन्तु ज़िद नें दीप यह मदिरालयों में यदि रखा तो
आग में इसकी झुलस कर प्राण-प्रण गिन-गिन जलेंगे I
आस का दीपक…

जम रही हो आस पर जब धुंध की घनघोर चादर
और जब विश्वास मन का खुद स्वयं से डगमगाए,
दृष्टि धूमिल सी बचे जब, हो सफ़र बिल्कुल अकेला
मिट गएँ हो लक्ष्य सारे, राह फिर किस ओर जाए ?

मौसमों की बेरुखी में
भाव मन के जम गए तो,
बोझ में सहमी ठिठकती हिमशिखा के बोल कोई
धार बन गंगा सरीखी क्या दुआओं से फलेंगे ?
आस का दीपक…

~डॉ० प्राची सिंह
रुद्रपुर(उत्तर प्रदेश)