अपनी इक पहचान…
अपनी इक पहचान बनाकर ख़ुश हूँ मैं,
इस दिल को रसखान बनाकर ख़ुश हूँ मैं।
पाँवों पसारे अँधियारों की बस्ती में,
ख़ुद को रौशनदान बनाकर ख़ुश हूँ मैं।
जिसमें क़ब्रें रौशन हैं अरमानों की,
ऐसा क़ब्रिस्तान बनाकर ख़ुश हूँ मैं।
माज़ी के सब मंज़र जिसमें क़ैद हुए,
आँखों को ज़िंदान बनाकर ख़ुश हूँ मैं।
बाहर से सब दिखते हैं पर अंदर से,
ख़ुद को इक इंसान बनाकर ख़ुश हूँ मैं।
दिल धड़कन को गीता जैसा पाक रखा,
साँसों को कुरआन बनाकर ख़ुश हूँ मैं।
दुनिया चाहे जो समझे पर ‘दीपशिखा’,
पत्थर को भगवान बनाकर ख़ुश हूँ मैं।
-दीपशिखा
छिन्दवाड़ा(मध्यप्रदेश)