Monday, May 6, 2024
विचार/लेख

ब्रिटिश काल के बने कानूनों में सुधार बेहद जरूरी

विचार। भारत सरकार ने आईपीसी और सीआरपीसी में आमूल-चूल परिवर्तन का एक बहुत बड़ा काम हाथ में लिया है। हम आर्म्स एक्ट बदल रहे हैं, नारकोटिक्स के बारे में भी कानून संशोधन कर रहे हैं और उसके बाद आईपीसी और सीआरपीसी में बदलाव करेंगे। मौका था 47वीं ऑल इंडिया पुलिस साइंस कांग्रेस के समापन समारोह का और इसे संबोधित करते हुए देश के गृह मंत्री अमित शाह ने उपरोक्त बातें कही थी।

महात्मा गांधी कहते थे, “पुलिस को जनता के मालिक के रूप में नहीं बल्कि जनता के सेवक के रूप में काम करना चाहिए। तभी जनता स्वतः पुलिस की सहायता करेगी और पुलिस जनता के परस्पर सहयोग से एक अपराध मुक्त समाज का निर्माण होगा।

संविधान निर्माताओं ने व्यवस्था के तीन भाग किए थे- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, ताकि किसी एक के हाथ में सारी शक्तियां न जाएं। लोकतांत्रिक प्रशासन में विधि द्वारा स्थापित भारतीय संविधान को लागू करना व समाज में अपराध को रोकना एवं कानून-व्यवस्था बनाए रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी पुलिस व सुरक्षा बलों पर होती है। पुलिस की प्रचलित छवि नकारात्मक ही है। चाहे वो फिल्मों में देखें या फिर फिर आम जनमानस के बीतर। ऐसा माना जाता है कि सत्ता जिसकी है विभाग ड्यूटी भी उनकी ही बजाते हैं। धारणा यह भी है कि वह सिर्फ नेताओं, अफसरों और धन्नासेठों की ही सुरक्षा और सेवा में जुटी रहती है। आम लोगों में उसकी दिलचस्पी कम ही है।

हमारी पुलिस आज भी 1861 की उस पुलिस संहिता से परिचालित है जो असल में 1857 के पहले क्रांति के दोहराव को रोकने के उद्देश्य से बनी थी। अग्रेजों के जमाने में बना पुलिस अधिनियम है। 1861 में बने पुलिस अधिनियम के मुताबिक ही देश के अधिकांश राज्यों की पुलिस आज भी काम कर रही है। दरअसल, इसे समझा जाना जरूरी है कि 1861 में बने पुलिस अधिनियम की भूमिका पुलिस छवि को बानने-बिगाड़ने में कितनी भमिका आदा करती है। भारत में आजादी के पहली लड़ाई के तौर पर 1857 के विद्रोह को याद किया जाता है।

परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्कृताम・यानी अच्छे का संरक्षण, बुरे का विनाश यूपी पुलिस का आदर्श वाक्य है।
पीस, सेल्फलेस सर्विस, जस्टिस’ (शांति, निस्वार्थ सेवा, न्याय) दिल्ली पुलिस के आदर्श वाक्य है।
इन आदर्श वाक्यों के जरिये पुलिस प्रशासन की तरफ से जनता के हित के दावे किए जाते हैं। देश भक्ति जनसेवा के ध्येय का दावा पुलिस करती है और हकीकत भी यही है कि समाज, राजनीति, यातायात, कला, संस्कृति, व्यापार, वाणिज्य हर क्षेत्र में हमें पुलिस की जरूरत होती है, पुलिस दिन-रात खड़ी भी रहती है। अन्य सरकारी मुलाजिमों की तुलना में सर्वाधिक समय अपनी ड्यूटी पर देती है। इसके बावजूद पुलिस की लोकछवि में एक डरावना आवरण क्यों हावी है ? क्यों कोई भी भारतीय थानों में उस उन्मुक्त भाव के साथ जाने की हिम्मत नहीं कर पाता है जैसे तहसील, जनपद या सरकारी अस्पताल में, आखिर इन सरकारी दफ्तरों की तरह पुलिस भी तो हमारी सुरक्षा और कल्याण के लिये बनाई गई है। इस सवाल के जवाब खोजने के लिये बहुत बड़े रिसर्च की जरूरत नहीं है, बस थोड़ा सा इससे जुड़ी जानकारी को इतिहास के आइने से समझने की जरूरत है। कि पुलिस एक्ट 1861 अंग्रेजी हुकूमत ने इसलिए बनाया था क्योंकि 1857 के पहले स्वतंत्र समर से ब्रिटिश बुरी तरह डर गए थे।

हमारी पुलिस आज भी 1861 की उस पुलिस संहिता से परिचालित है जो असल में 1857 के पहले क्रांति के दोहराव को रोकने के उद्देश्य से बनी थी। अग्रेजों के जमाने में बना पुलिस अधिनियम है। 1861 में बने पुलिस अधिनियम के मुताबिक ही देश के अधिकांश राज्यों की पुलिस आज भी काम कर रही है। दरअसल, इसे समझा जाना जरूरी है कि 1861 में बने पुलिस अधिनियम की भूमिका पुलिस छवि को बानने-बिगाड़ने में कितनी भमिका आदा करती है। भारत में आजादी के पहली लड़ाई के तौर पर 1857 के विद्रोह को याद किया जाता है।

हालांकि, कुछ राज्यों ने नए अधिनियम के तहत पुलिस को संचालित करने की कोशिश की है। लेकिन सच यह है कि नए और पुराने अधिनियम में कोई खास फर्क नहीं है। महाराष्ट और गुजरात में 1951 का बंबई पुलिस अधिनियम लागू है। कर्नाटक में 1963 में और दिल्ली में 1978 में नया पुलिस अधिनियम बनाकर पुलिस को नियंत्रित करने की कोशिश की गई।

1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद पुलिस सुधार के खातिर राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन 1979 में किया गया था। इस आयोग ने रिपोर्ट देने की शुरुआत 1981 से की। इसने कुल आठ रपटें दीं। चौथी रिपोर्ट हिरासत में प्रताड़ना पर थी। इसमें कहा गया कि हिरासत में मौत के मामले बढ़ गए हैं। पुलिस कस्टडी में टॉर्चर अमानवीय है। आईपीसी, 1860 की धारा 330-331 के तहत किसी को चोट पहुंचाना दंडनीय अपराध है। सबूत नहीं होने से पुलिसवालों पर मुश्किल से कार्रवाई होती है। संविधान में दिए गए जीवन और आजादी के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून में प्रावधान किए जाने चाहिए।

इंदिरा गांधी की वापसी हुई तो 1981 में एनपीसी को बंद कर दिया गया। आयोग ने जनता सरकार के समय 1979 में पहली रिपोर्ट जारी की थी। बाकी सात रिपोर्ट्स मार्च 1983 में जारी कर दी गईं।

पुलिस रिफॉर्म पर कई समितियां बनाई गईं। इनमें रिबेरो समिति (1998), पद्मनाभैया समिति (2000) और मलिमथ समिति (2003) प्रमुख हैं। रिटायर्ड डीजीपी जूलियो एफ रिबेरो की अध्यक्षता वाली समिति ने अक्टूबर 1998 में पहली रिपोर्ट दी। इसने हर राज्य में पुलिस परफॉर्मेंस ऐंड एकाउंटिबिलिटी कमीशन (पीपीएसी) और हर जिले में पुलिस शिकायत अथॉरिटी (डीपीसीए) बनाने की सिफारिश की। मार्च 1999 में सौंपी दूसरी रिपोर्ट में केंद्रीय पुलिस समिति बनाने, जांच और कानून-व्यवस्था के लिए अलग-अलग बल तैनात करने, हर राज्य में पुलिस भर्ती बोर्ड बनाने जैसे सुझाव दिए गए। लेकिन ये सब रिपोर्ट ठंढे बस्ते में पड़ी हैं और पुलिस सुधार के लिए कोई ठोस कदम अभी तक नहीं उठाया जा सका है।

आजकल हालत तो यह हो गई लोग पुलिस के पास अपनी शिकायत लेकर जाने की बजाए मीडिया के पास पहुंच रहे हैं। ये कहा जाए तो गलत नहीं कि मीडिया ट्रायल के बढ़ते चलन के कुछ हद तक पुलिस भी जिम्मेवार है। पिछले कुछ सालों से ऐसा देखने में आया है कि पुलिस का प्रयोग समय-समय पर सरकारें अपने विरोध को कुचलने के लिए भी करती रही हैं।

धरना-प्रदर्शन के दौरान लाठीचार्ज हो जाना बेहद आम हो गया है। ऐसा करके एक तरह से लोगों के हाथ से शांतिपूर्ण विरोध करने का औजार छिना जा रहा है और परोक्ष तौर पर ही सही उन्हें हिंसात्मक विरोध करने के रास्ते पर आगे बढ़ाया जा रहा है। जब से देश में नई आर्थिक व्यवस्था लागू हुई है तब से सरकार के इशारे पर पुलिस पूंजिपतियों की हितों की रक्षा की खातिर लोगों के साथ ज्यादती करने के आरोप पुलिस पर लगने लगे हैं।

रेहड़ी पटरी वालों से लेकर रेलगाड़ियों में सामान बेचने वाले वेंडरों तक से वसूली करने की शिकायतें आए दिन सुनने और देखने को मिलती हैं। ऐसे में अहम सवाल यह है कि जिस देश की पुलिस का चरित्र ऐसा हो तो वहां से भय और असुरक्षा का माहौल आखिर कैसे दूर हो सकता है? आखिर पुलिस को मानवीय चेहरा और चरित्र कैसे प्रदान किया जाए? पुलिस का गठन रक्षा करने के लिए हुआ है न कि अराजकता को हवा देने या आम लोगों के साथ तानाशाह जैसा बरताव करने के लिए।

पुलिस के व्यवहार में सुधार करने के लिए सबसे पहले तो अंग्रेजों के जमाने के पुलिस अधिनियम में बदलाव की दरकार है। क्योंकि गाइडलाइन को बदले बगैर व्यवस्था को बदलना असंभव सरीखा है। जिस जमाने में यह पुलिस अधिनियम बना था उस वक्त की चुनौतियां आज से काफी अलग थीं। इसलिए मौजूदा दौर की मुश्किलों से निपटने के लिए नए नियमों और कानूनों की जरूरत है। पुलिस की भूमिका और जिम्मेदारियों में भी काफी बदलाव आ गया है। पुलिस के राजनीतिक प्रयोग पर भी लगाम लगाया जाना बेहद जरूरी है। सत्ताधीश अपनी सियासी रोटी सेंकने के फेर में कई बार रक्षक को भक्षक की भूमिका में तब्दील कर देते हैं।

पुलिस के चरित्र में सुधार के लिए एक ऐसी व्यवस्था कायम होनी चाहिए जिसमें पुलिस के खिलाफ होने वाली शिकायतों का निपटारा जल्दी से जल्दी और निष्पक्ष तरीके से हो सके। कुछेक मामलों को छोड़ दें तो अभी हालत यह है कि पुलिस के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने में लोग हिम्मत भी नहीं जुटा पाते हैं क्योंकि ऐसा कर देने पर पुलिस संबंधित पक्ष को प्रताड़ित करने के लिए नई-नई तरकीब तलाश लेती है। इन सबसे ज्यादा जरूरी है पुलिस की मानसिकता में बदलाव लाना।

इंडियन पुलिस अंग्रेजी शासन की साम्राज्यवादी और सामंतवादी नीतियों के पोषक के रूप में स्थापित की गई थी। समाजसेवा, निर्बलों की रक्षा, अपराधों की रोकथाम जैसे कानून द्वारा स्थापित कार्यों की अपेक्षा इसका उपयोग कानून द्वारा अपरिभाषित कार्यों के लिये सत्ता तंत्र ने अधिक किया है। सन् 1902 में गठित भारतीय पुलिस आयोग ने पुलिस तंत्र को अक्षम, अप्रशिक्षित, भ्रष्ट और दमनकारी कहा था लेकिन तबकी गोरी हुकूमत के लिये यह कोई चिंता की बात नहीं थी क्योंकि उसका ध्येय भारत में किसी लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना नहीं बल्कि हमारे समाज का शोषण और दमन ही था। इसे एक उदाहरण से हम समझ सकते हैं- अगर आप पांच लोग किसी चौराहे पर खड़े होकर सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाते हैं तो पुलिस आपको शांतिभंग करने के आरोप में धारा 151 में बन्द कर देती है और आपकी जमानत एसडीएम साहब को लेनी होगी। वहीं अगर आप किसी को थप्पड़ मार दें, उसे गालियां दें, उसे हल्की चोट आ जाये तो आपको धारा 323 506बी के तहत पकड़ा जाएगा और थानेदार साहब ही आपको जमानत पर छोड़ देंगे। इसे अंग्रेजी हुकूमत के आलोक में समझिए। उस दौर में सत्ता के विरुद्ध सार्वजनिक समेकन और सँवाद इसलिये निरुद्ध था क्योंकि हुकूमत अंग्रेजी थी। भारतीय बड़ी संख्या में अंग्रेजी राज के अधीन काम करते थे उनके अफसर यहां तक कि उनकी पत्नियां उनके साथ मारपीट करें, बेइज्जत करें तब भी उनका अपराध कमतर बनाया गया। अंग्रेजी पुलिस का दारोगा घर आकर उनको सम्मान से जमानत दे देता था। इसी दौरान अगर कोई इंकलाबी रूप से मुखर हो तो उसे बंदी बनाकर 151 में न्यायालय में पेश किया जाता था। आज भी यह धाराएं हम पर लागू हैं और इससे मिलती जुलती अनेक धाराओं के माध्यम से हम उसी दोयम दर्जा नागरिक के रूप में शासित हो रहे हैं। प्रश्न यह है कि आजादी के तत्काल बाद या आज तक इस व्यवस्था को बदला क्यों नहीं गया है ? ईमानदार निष्कर्ष यही है कि हमारे नेताओं ने भी उसी स्वरूप में पुलिस को इसीलिये स्वीकार किया क्योंकि लोकतंत्र के शोर में भी वे मानते रहे हैं कि सत्ता पुलिस के जरिये ही स्थापित और कायम रखी जा सकती है।

-संध्या दीक्षित