Saturday, April 27, 2024
साहित्य जगत

पुस्तक समीक्षा: समरांगण से….

पुस्तक समीक्षा

समरांगण से….

बात कहां से शुरू करूं! यह समस्या हमेशा बनी रहती है। बात करना चाहता हूं राजस्थान कोटा से सुप्रसिद्ध युवा कवि ‘श्री युत हेमराज सिंह ‘हेम’ के संदर्भ में। बात करना चाहता हूं, उनकी धूम मचाती लेखन कला के संदर्भ में! बात करना चाहता हूं उनकी अमर कृति महाकाव्य *समरागण से….* के संदर्भ में! बात करना चाहता हूं वर्तमान साहित्य की दिशा और दशा के संदर्भ में! ऐसे कितने ही प्रसंग हैं, जिन्हें मात्र स्पर्श करने की भी मोहलत वक्त नहीं देता है! हमें दैनंदिन जीवन से अनगिनत पहलुओं के संजाल से निकलकर सार्थक और उद्देश्य पूर्ण बात चयनित करने की मात्र आजादी मिलती है। भूमिका ही बड़ी हो जाए, तो फिर सृष्टि की गंभीर बातें कैसे होंगी?

उन तमाम आवश्यक समझी जाने वाली बातों की लंबी लड़ियों से हमें कुछ आवश्यक और उपयोगी बातों को रखना ही होगा, जिनका वास्ता- जीवन, मृत्यु, कर्म-अकर्म, मोह, निर्वेद ज्ञान,अज्ञान इत्यादि से संबंधित है।

*समरांगण से…..*
*समरांगण महाकाव्य* में श्रीमद्भागवत गीता के अठारह अध्यायों का अठारह सर्ग में सुन्दर भावपूर्ण प्रस्फुटन हुआ है। सभी श्लोकों का सरल सहज लोकभाषा में संप्रेषण हुआ है। गीता के गूढ़तम भावों का निरूपण लोकहित और लोक मंगल के निमित्त हुआ है। कौरव – पांडव की सेना जब युद्ध के लिए परस्पर उन्मत्त थे, उस समय समर भूमि का दृश्य कैसा था –

*शंखघोष के साथ समर के,
रणबाजे बजते हैं।
रणभेरी, दम,ढोल,‌ नगाड़े,
बिगुल, ताल सजते हैं।

देख रहे हैं देव गगन से,
युद्ध धरा के तल पर
घोर- शब्द चित्कार उठे सब,
रण बाजे भूतल पर।

सुनो श्रेष्ठ नृपेन्द्र! कृष्ण ने,
अपना शंख बजाया।
‘पांचजन्य का विकट -घोष सुन,
जल -थल-नभ घबराया…*

*श्रीमद्भागवत गीता* भारतीय संस्कृति की धूरी है तो आध्यात्मिक चिंतन की परिधी है। *श्रीमद्भागवत गीता* ब्रह्माण्ड का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आख्यान है। यह ग्रंथ न तो हमें निरा साधुता धारण कर कर्म पथ से पलायन कर वन -वन भटकने को प्रेरित करता है और न ही जीवन के निश्चित पड़ाव पर आकर इसे महज़ पठन- पाठन की अनुमति देता है। *श्रीमद्भागवत गीता* तो धर्म की परिभाषा को निज अस्तित्व के प्रकटीकरण में सोपान की बोधगम्यता देता है– (श्रीमद्भागवत गीता से)

*राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्*

(यह ज्ञानयुक्त विज्ञान सभी विद्याओं में श्रेष्ठ है ,जो गोपनीयता में भी सर्वश्रेष्ठ है।अति पवित्र,अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला,धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है।)

पेशे से व्याख्याता के पद पर कार्यरत श्री हेमराज सिंह ‘हेम’ जी का महाकाव्य अपने आप में अनोखा ग्रंथ है क्योंकि साहित्य जगत की दिशा जहां अपने मूल लक्ष्य से भटक कर इधर -उधर की भौतिकतावादी वासनिक संसार की परिसीमन को ही निर्धारित करने में लच्छेदार शब्दों से नव प्रतिमा गढ़ने में व्यस्त थे, तो वहीं बहुधा ऐसे साहित्यक मनीषी भी हैं, जिन्होंने हमारे सांस्कृतिक धरोहरों को पुनर्स्थापित करने में तथा निज लेखन की विशिष्ट शैली में भारतीय हीरक सदृश ग्रंथों को तराश कर सम्यक रूप में स्थापित कर महत्ती भूमिका निभा रहे हैं। यूं तो हेमराज सिंह जी के काव्य सृजन का मुख्य स्वर ओजस्वी रहा है। इतिहास के स्वर्णिम पन्नों से वीर रस की निष्पति कर अपनी अमर पहचान साहित्यिक जगमगाते सितारों में क़ायम करने में पूर्ण सफल रहे हैं। *समरांगण से–* जैसी युगीन कीर्ति वीरता और ओजस्विता से परे एक चरमोत्कर्ष दर्शन अभिव्यक्ति है। बहुत कम ऐसे चिंतक हुए हैं, जिन्होंने श्रीमद्भागवत गीता जैसे ग्रंथों पर भावप्रवण अभिव्यक्ति दी हो। जिस धर्म ग्रंथ पर सम्यक अवलोकन न हो वह बदलते हालात और समय के दो पाटों में पिस कर अपनी प्रासंगिकता खो देता है। श्रीमद्भागवत गीता जैसे ग्रंथों ने वीर शिवाजी से लेकर महाराणा प्रताप सिंह, रानी लक्ष्मी बाई, सुभाष चन्द्र बोस, लोकमान्य तिलक जैसे क्रांतिकारियों के हृदय में देश, समाज, मानवता के लिए अपना सर्वस्व आहुत करने की निष्काम प्रेरणा दी। बर्मा के मांडले जेल के बीमारू परिवेश में महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक को जीने की ओर जूझने की प्रेरणा मिली। इसी जेल में जब महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचंद्र बोस को भी कैद कर रखा गया था, तो उन्हें मांडले जेल के दमघोंटू वातावरण में भी लोकमान्य तिलक की उपस्थिति का एहसास संबल प्रदान किया था। इन्हीं श्लोकों में वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दिव्य ऊर्जा ग्रहण करते रहे —-

“यथाकाशस्थितो नित्यं वायु: सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ।।”
(जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान् वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पन्न होने से संपूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान।।)

मोह से ग्रसित पार्थ के लिए —

जन्म -मृत्यु का चक्र धरा पर,
अजस्त्र ही चलता है।
विधि- विधान को भूल पार्थ तू,
मोह -अनल जलता है।

जन्म पूर्व अव्यक्त शरीरी,
मृत्यु बाद कब जाना।
देह- काल तक रक्त -बंध ये,
मृत्यु बाद कब माना।

सुनो धनुर्धर! आत्मतत्व को,
जान कहां नर पाया?
सभी अचंभित देख, जान, कह,
कौन इसे वध पाया?

पार्थ, छोड़कर शोक व्यर्थ का,
धर्म राह पर चलना।
जीव, जीव-हित शोक त्याग दें,
युद्ध नहीं अब टलना।

क्षत्रिय वंशी श्रेष्ठ धनुर्धर!
निज पौरुष पहचानो।
धर्म हेतु कर थाम शरासन,
युद्ध नियत है मानो।

विजय वरण कर समरांगण में,
कीर्तिध्वजा फहराओ।
अगर मिले रण बीच मृत्यु तो,
मोक्ष गमन कर जाओ।

शोक -सरित में डूब पार्थ तुम,
युद्ध मार्ग से भटके।
योद्धा -वीर-धनुर्धर होकर,
रहे युद्ध से कटके?

कीर्ति कलंकित होगी कुल की,
कायर,लोग कहेंगे।
कर्म -राह से विमुख पार्थ को,
कैसे लोग सहेंगे?”
——-

सुप्रसिद्ध कवि हेमराज सिंह ‘हेम’ जी के लिए साहित्य जगत् से आध्यात्मिक जगत् की यात्रा एक सुखद घटना है। एक निष्काम कवि लेखनी के सीमित आंगन में पंचभौतिक घुंघुरू पहन नृत्य करता हुआ भी जब अतृप्त रहता है, तब उसके क़दमों के नीचे घूमती धरती फिसलने लगती है। इस क्रम में वह धरती की कक्षा को तोड़कर अनंत आंगन में प्रवेश हेतु उद्धृत होता है, जहां से *समरांगण से–* का अवतरण होता है—

“सुनो पार्थ, सत -रज तमसी में,
द्वंद्व निरंतर चलता।
जो परास्त कर बढ़े देह में,
प्रबल -प्रकट हो फलता।

ज्ञान -दीप जब जले देह-दर,
आत्म प्रकाशित नर हो।
रज-तम गुण को त्याग श्रेष्ठ-नर,
सतोगुणी,शुभकर हो।

तामस -गुण का उदय जीव को,
मोह विवश है करता।
मोह-विवश-प्रमत्त मूढ़-नर,
अंध कूप में गिरता।

पार्थ! सतोगुणी देह त्यागकर,
ब्रह्म लोक में जाते।
रजोगुणी सकाम-ग्रसित हो,
पुनर्जन्म ले आते।

मान -मोह को जीत ज्ञान से,
काम -मुक्त हो जाता।
सुख -दुख से हो विलग श्रेष्ठ नर,
परम् धाम को पाता।
—-
प्रगतिशील कवि श्री हेमराज सिंह ‘हेम’ जी का मूल उद्देश्य जन्म-मृत्यु से भटकते जीवों के लिए श्रीमद्भागवत गीता का लोकवाणी में प्रेषित कर मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करना है। *समरांगण से–* शीर्षक ही समर और आंगन के विरोधाभासी अभिव्यंजन में नीति, न्याय, कर्म, भक्ति के पथ पर चलते हुए जन्म जन्मांतर के क्लेशों को मिटाकर पाप
मुक्त करता है।

वीतराग,भय,क्रोध त्याग जो,
मेरा शरणी बनता।
पार्थ!अंत में दिव्य ज्ञान पा,
राह, मोक्ष की चुनता।

अज्ञानी नर जान न पाते,
मोह- कूप जा गिरते,
मगर विवेक, बुद्धि से ज्ञानी,
राह सत्य की सुनते।

कृष्ण मोहन मिश्र
कोलकाता,प.बं.