Monday, July 1, 2024
साहित्य जगत

पिताजी की सीख

दोपहर के एक बज रहे थे, कस्तूरी किचन का काम खत्म करके अपने कमरे में आराम करने जा ही रही थी कि ससुर जी की आवाज कानों में पड़ी। वे सासु माँ से कह रहे थे–“कुछ समझाओ माया को, कब तक यहाँ रहेगी? जो हुआ, सो हुआ,, मगर अब दामाद जी से नाराज होकर क्या यही बैठी रहेगी?”

सासु माँ ने कहा–“मैं क्या समझाऊँ उसे, थक गयी हूं समझा समझा कर, पर मेरी सुनता कौन है यहाँ?
आप ही की बेटी है, आप ही पर गयी है, गुस्से और जिद में। मैं तो उसके आगे हार मानती हूँ जी! अब आप ही समझाओ अपनी बेटी को?” सासु माँ बेहद उदास हो गयी। ससुर जी भी बेमन से बिस्तर पर लेट गए।
कस्तूरी दरवाजे की ओट से सारी बातें सुन रही थी, वह भी दिनभर की थकी अपने कमरे में आकर बिस्तर पर लेट गयी। वह मन ही मन सोचने लगी—पिताजी की सोच भी सही है।आखिर कितने दिन तक विवाहित बिटिया को घर पर रख सकते हैं?
कस्तूरी और उसकी ननद माया की शादी एक साथ ही हुयी थी। कस्तूरी दुल्हन बनकर यहाँ आयी तो माया दुल्हन बन ससुराल गयी। कस्तूरी एक मध्यमवर्गीय परिवार की शिक्षित, संस्कारी और शांत लड़की थी, जबकि माया रईस परिवार की शिक्षित, संस्कारी और गुस्सैल लड़की थी।
कस्तूरी ससुराल में सबसे बहुत अच्छे से घुलमिल गयी, जबकि माया ससुराल के रहन सहन में खुद को नहीं ढाल पा रही थी। रोज किसी न किसी बात पर माया का गुस्सा पति पर उतरता,वो उसे समझाने की लाख कोशिश करता कि माया समझो, सामंजस्य बिठाओ, मगर नही?
माया को तो अपनी आजादी,अपनी जिंदगी ज्यादा प्यारी थी। पति से लड़ झगड़ चली आयी मायके।
पिछले दो महीने से मायके में है।माता पिता, सास ससुर, पति, भाई सब आये मनाने,लेकिन उसने साफ साफ जाने से इंकार कर दिया।
पिताजी की तबियत भी ठीक नही रहती थी, ऐसे में माया दीदी के यहाँ आ जाने से वे काफी परेशान हो गए थे। एक दिन पिताजी (ससुर जी) ने मुझे और माया दीदी को पास बुलाया और कहा –बेटा, तुम दोनों रोज मुझे खाना बनाकर खिलाती हो ना, आज मैं बनाकर खिलाऊँगा।
मैंने रोकते हुए कहा भी कि पापा आपको काम करने की क्या जरूरत है, हम है ना, हम रोज ही तो करते हैं।आप सिर्फ आज्ञा दीजिये क्या बनाऊं।
मगर पिताजी तो उस दिन किसी और ही मूड में थे, सो वे नही माने। हमसे सारा सामान मंगवाए और शुरू हो गए।
मैं और दीदी उन्हें बस काम करता देखते रहे।
पिताजी ने आलू काटे तो आधे एकदम बारीक़ कटे हुए थे,आधे मध्यम आकार के, आधे एकदम बड़े बड़े।
हमारी समझ से परे था कि पिताजी आखिर कर क्या रहे हैं। सासु माँ भी पास आकर बैठ गयी पर बोली कुछ नहीं।
पिताजी ने एक बर्तन में आटा निकाला फिर माया दीदी से पूछा– बेटे ये क्या है?
गेहूँ का आटा है पापा। दीदी ने तपाक से कहा
नहीं! ये सिर्फ आटा नहीं है, यह है तुम्हारा अपना परिवार, जिस पर तुम्हें प्यार रुपी पानी डालकर उसे एक साथ बड़े प्रेम से पिरोना होता है, इसमें डाला जाने वाला नमक उस प्रेम की मिठास है, जो अगर न हो तो रोटी फीकी लगेगी और तो और जायका भी बदल जायेगा।
तुमको अपने इस आटे रूपी परिवार को प्रेम रुपी पानी डालकर इस तरह एक साथ करना है कि आटा गीला भी नहो और कठोर भी न हो, अर्थात् प्यार ज्यादा होने पर लोग बिगड़ जाते हैं और प्यार कम मिलने पर इस तरह कठोर दिल के बन जाते हैं कि किसी की परवाह नही करते।
दोनों ही परिस्थिति में अच्छी रोटी नही बनती, अच्छी रोटी बनाने के लिए आटे को नरम गूँथना होता है यानि नरम व्यवहार से परिवार एक बनता है।
अब देखो इसकी छोटी छोटी लोइयां बनाते हैं और उसे बेलकर तवे पर सेंकते है, ये छोटी छोटी लोइयाँ है तुम्हारे घर के हर एक सदस्य, जिनको तुम्हें ही बड़े प्यार से आकार देना है अर्थात् बेलना है और उसके बाद तवे पर सेंकना है।
पिताजी ने तीन रोटियां सेंकी। एक तो तवा ज्यादा गर्म होने के कारण जल गई थी, दूसरी ठंडी होने से कच्ची रह गयी तो तीसरी बहुत अच्छी सिंकी हुयी फुलका बनी थी।
उन्होंने बोलना जारी रखा-जैसे तुम दोनों ने देखा कि ज्यादा आँच पर रोटी जल गई, कम पर कच्ची रह गयी और मध्यम पर बहुत ही अच्छी बनी। यही बात तो जीवन में भी है मेरी बच्चियों। अगर हम हर बात पर गुस्सा करेंगे, तो रिश्ते भी इस जली रोटी की तरह जल जायेंगे, रिश्तों पर ध्यान नही देंगे या प्रेम नही करेंगे तो रिश्ते कच्ची रोटी की तरह हो जायेंगे, लेकिन अगर हम इन्ही रिश्तों को प्रेम से, समझ से, गुस्से से सामंजस्य बिठाकर चलाएंगे न तो रिश्ते भी बने रहेंगे और मिठास भी, बिलकुल इस फुलका रोटी की तरह।
याद रखो कि तुम्हें रोटियां भी सेंकनी है, उन्हें जलने भी नही देना है और अपनी उँगलियाँ भी बचानी है। मतलब तुम्हें प्रेम भी देना है और खुद में परिवर्तन लाकर खुद को बचाना भी है, यही परिवार का महत्व है।
अब जरा इस आलू की सब्जी को ही देख लो, जो बारीक़ कटे है, वो जल गए हैं, मध्यम आकार के पक गये और बड़े आकार के कच्चे ही रह गये, जबकि हमने तेल, मसाले सबमें एक जैसे ही डालें और साथ में ही भुना है,, फिर ऐसा क्यों है जानती हो? क्योंकि हर इंसान एक जैसा नही होता है। सबका अंदाज अलग अलग होता है, सबके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं,और सबकी परिस्थिति अलग अलग होती है। बात है सिर्फ हमारे समझ की है कि हमें किस तरह उसे खाने लायक बनाना है अर्थात् किस व्यक्ति के साथ हमें किस प्रकार व्यवहार करना है।
इतना सब बोल पिताजी ने बड़े प्रेम से दीदी के सर पर हाथ रखकर कहा–“बेटा! तुम मेरी दुश्मन नहीं हो। इस घर की शान हो, जब तक चाहे रह सकती हो, मगर गलती तुम्हारी है, दामाद जी तो हर समय तुम्हें समझाते हैं, इस तरह गुस्से में अपने परिवार को छोड़ देना समझदारी है क्या,,,,,,? तुम तो वो फूल बनो जो अपने ससुराल के साथ साथ मायके को भी महका सकती हो।अब तुम्हारी जिम्मेदारी वह परिवार है और तुम्हें ही अपने प्रेम के नमक से उस परिवार को एकसार बनाकर सही आकार में ढालकर मध्यम आंच पर सेंककर रोटियां बनानी है, जैसे तुम्हारी भाभी कस्तूरी कर रही है। इतना बोल पिताजी आँसू पोछते हुए किचन से बाहर चले गए।
दीदी भी बिना कुछ बोले कमरे में चली गयी। दूसरे दिन दीदी ने पिताजी से कहा-पापा, आप उनको फोन कर बुला लीजिये, मैं अपने घर वापिस जाना चाहती हूँ। मुझे माफ़ कर दीजिये पापा, मैं भूल गयी थी कि मेरे उस घर के प्रति भी कुछ कर्तव्य है, थैंक्यू पापा। आपने मुझे जीवन की सबसे बड़ी शिक्षा दे दी। अब कभी भी इस सबक को नही भूलूंगी। रुआंसी सी आवाज में कहते हुए वे जमीन पर बैठ गयीं। पिताजी ने दीदी को उठाते हुए कहा–शाबाश! मेरे बच्चे,मुझे तुमसे यही उम्मीद थी। मैं कल ही तुम्हें ससुराल खुद छोड़ने जाऊँगा।
मैं बड़े आदर से पिताजी की ओर देखने लगी। कितनी आसानी से उन्होंने मुझे और दीदी को इतनी बड़ी शिक्षा दे दी। हर स्त्री के जीवन में यह शिक्षा लागू होनी चाहिए,, ताकि कोई भी घर टूटने से बच जाएं।। मैं तो भविष्य में अपनी बेटी को भी यही शिक्षा दूँगी, जिससे वह भी ससुराल में ख़ुशी से जी सकें।
आज ससुर जी से मिली शिक्षा के कारण ही मैं एक सफल गृहणी बन गई पाई हूँ।

शिखा गोस्वामी”निहारिका”
मारो, मुंगेली, छत्तीसगढ़