Saturday, May 18, 2024
साहित्य जगत

गीत

मुरझाने से क्यों घबराना,

जब बागों में फिर है आना।
रूप मिले चाहे जो भी पर,
गीत हमें यह फिर है गाना।।

यह परिवर्तन ही है शाश्वत,
कौन अछूता इससे जग में।
सब हैं इस धरती पर राही,
सबको चलते रहना मग में।।
आते ही हो जाता अंकित,
कब किसको कैसे है जाना।
मुरझाने से क्यों घबराना,
जब बागों में फिर है आना।।

भूल गये दुनियां में आकर,
जाने कितनी बदली काया।
मस्त हुए अपने यौवन पर,
ढूँढ़ रहे बस दर- दर माया।।
रात- दिवस बढ़ती बेचैनी,
भूल गये हैं हम मुस्काना।
मुरझाने से क्यों घबराना,
जब बागों में फिर है आना।

साथ हमारा तब भी होगा,
जब होंगे हम दूर यहाँ से।
तुमसे हम आयेंगे मिलने,
लेकर कोई दृश्य वहाँ से।।
संकेतों की भाषा पढ़ना,
और इसे सबको बतलाना।
मुरझाने से क्यों घबराना,
जब बागों में फिर है आना।।

मुरझाने से क्यों घबराना,
जब बागों में फिर है आना।
रूप मिले चाहे जो भी पर,
गीत हमें यह फिर है गाना।।

डाॅ. राजेन्द्र सिंह ‘राही
(बस्ती उ. प्र.)
दिनांक- 14-06-2022