Saturday, May 18, 2024
साहित्य जगत

कान्हा! तेरे जगत में,…

कान्हा! तेरे जगत में, हुआ प्रेम का ह्रास।
करोना से मानव ही, दे मानव को त्रास।।
पहले तो फैला दिया, भू पर दूषक तंत्र।
फिर रोए पछतात है, मिले रोग का मंत्र।।
चल पीछे मुड़ देख लें, ब्रह्मा की वो बात।
अवतरण बाद सोचते, क्यूँ आया मैं गात।।
क्यूँ आया मैं देव बन, क्या ध्येय व कर्तव्य।
क्या करूँ अब क्या न करूँ, क्या ही हो मंतव्य।।
इक थी तब आवाज़ सुनी, भीतर बाहर माँहि।
तप! तप! तपस्या तपते, तप्त हृद मलय जाँहि।।
ब्रह्म ज्ञात तब कर सके, क्या है मेरा काम।
सृष्टि शुरू सब हो सके, क्या हो नव निर्मान।।
ऐसे ही जानें सभी, क्या भले सद्विचार।
क्या मेरा कर्तव्य है, कैसे मिटे विकार।।
तप कब चाहे श्रमिक का, काया करे कठोर।
शांत चित्त ध्येय धरती, आत्ममार्ग पे भोर।।
क्या हि हमारा ध्येय है, क्या है म्हारा धर्म।
आए क्यों संसार में, क्या है उसका मर्म।।
एक धर्म शरीरन का, मानव लेता धार।
आत्मा दूजे धर्म का, बदन वसन का सार।।
श्वेत वस्त्र कोई धरे, कोउ धरे रंगीन।
हिंदू मुस्लिम सिख इसा, मन मनसा मंगीन।।
माता प्रिय ज्यों बालका, भगत प्यारा राम।
आत्मा धर्म सत्य का, अंश से अंश काम।।
वो तो न्यौता दे रहा, सन्मुख बैठो आन।
पल भर में ही मिलन हो, करूणा हृदय तान।।
जीवन में जब तक रहे, प्रेयस मिलता आन।
श्रेयस तो दूर हि रहे, भुला प्रेम की तान।।
डॉ. वीना राघव ‘वीणा’
गुरुग्राम (हरियाणा)