Saturday, May 18, 2024
साहित्य जगत

तुमसे मैं !विमुक्त हो जाऊं ऐसी कोई चाह नहीं…

तुमसे मैं !विमुक्त हो जाऊं ऐसी कोई चाह नहीं।
तेरे द्वारे तक ना जाऊं ,ऐसी कोई राह नहीं।।

वृंदावन की गलियां अब भी मुझको खोजा करती हैं।
निर्निमेष बैठी राह निहारे अब भी देखा करतीं हैं।।
कितना मुझमें तू, मैं तुझमें,इसकी कोई थाह नहीं।

शरद पूर्णिमा का शशि अब भी ताका झांका करता है।
अब भी अमृत रस बरसाकर प्राण चांदनी भरता है।
बारह मासों में कार्तिक सा उत्तम कोई माह नहीं।

विरह अग्नि में तप कर निखरीं राधा संग गोपिन सारी।
सह अनंत दुःख और पीड़ा भी भूली ना वो छवि प्यारी।।
करतीं रहीं अन्तहीन प्रतीक्षा ,निकली मुख से आह नहीं।

आर्यावर्ती सरोज “आर्या”
लखनऊ ( उत्तर प्रदेश)