Monday, May 6, 2024
साहित्य जगत

” हमें उतनी ही मिलती है जो रोशनदान देता है..!

” हमें उतनी ही मिलती है जो रोशनदान देता है..!”

आज जब देश के जाने-माने हिंदी-ग़ज़लकार श्री हरीश दरवेश.. अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति के अंतर्राष्ट्रीय प्रांजल पटल पर उपस्थित होकर कहते हैं..कि…..

” उन्हें ख़ुद आ के अपनी रोशनी दिनमान देता है
हमें उतनी ही मिलती है जो रोशनदान देता है..!”

तो दुष्यंत अचानक याद आ जाते हैं.. कहते हुए…………..

” यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां
मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा…!”

ये “सरोकार” से बावस्ता दिंदुस्तानी लहजे में कही गयी हिंदी ग़ज़लें हैं..जो शायद बलवीर सिंह “रंग” से शुरू होकर दुष्यंत कुमार, अदम गौंडवी और आज के सैकड़ों हिंदी ग़ज़लकारों तक पहुंची है। इसी कड़ी में एक नाम “हरीश दरवेश” भी है।

इसीलिए दरवेश जी ग़ज़लों से मुताल्लिक सवाल पूछते नज़र आते हैं कि……………………….

” वही ज़ुल्फ़ें वहीं ज़िक्रे-जवानी आज भी क्यूं है ?
ग़ज़ल में बस मुहब्बत की कहानी आज भी क्यूं है ?”

और फिर आगे कहते हैं…………………….

” नयन का नीर मांगे है, हृदय की पीर मांगे है
ग़ज़ल इस दौर की हम से नयी तहरीर मांगे है..!”

इन्हीं ख़यालात के मद्देनज़र.. जनाब हरीश दरवेश ने कुछ क़ाबिले-ग़ौर अशआर, शेर, ग़ज़लें यूं कहीं कि…………

* सियासत कौन कर पाए वहां ईमानदारी से
जहां परधान चलते हैं पजेरो से सफ़ारी से…!”
* सियासी लोग फ़क़त एक काम करते हैं
ये मुल्क वालों को ज़हनी ग़ुलाम करते हैं…!’
* और अब इससे ज़ियादा क्या हवाला चाहिए
एक गर्दन को यहां दस टन की माला चाहिए…!”
* धर्म का मतलब समझने के लिए आली जनाब
सोच में संवेदना की पाठशाला चाहिए…!”
* शिकारी देखिए इस दौर का कितना सयाना है
हमारा तीर भी है और हम पर ही निशाना है…!”

लेकिन ऐसा भी नहीं था कि श्रृंगार बिल्कुल इनकी ग़ज़लों से ग़ायब हो। इस बाबत भी बेहतरीन शेर और ग़ज़लें कहीं दरवेश जी ने…………………………..

* कठिन कितना एक-एक क्षण हो गया है
हमारे हृदय का हरण हो गया है…!”
* कहीं प्यास उसकी उसे ले न डूबे
समंदर नदी की शरण हो गया है…!”
* वेदना के बिना अधूरी है, प्रेम की हर कथा अधूरी है
तेरा श्रिंगार देखकर ये लगा, चंद्रमा की कला अधूरी है!”
* बह गए सब सपन नैन की कोर से
थोड़े इस ओर से थोड़े उस ओर से…!”
* अब तो उनका भी व्याकुल हृदय हो गया
लग रहा है मिलन अपना तय हो गया….!’

भाषा हिंदी..मीटर ग़ज़लों का..कहीं कोई कन्फ़्यूज़न नहीं दरवेश जी को ! यह सिफ़त ज़्यादातर हिंदी-ग़ज़लकारों में नहीं मिलती। अपनी सरहदों को लांघकर ग़ज़लें कब गीत बन जाती हैं..और गीत कब ग़ज़लों की शक्ल अख़्तियार कर लेते हैं..शायद वे नहीं समझ पाते।

श्री हरीश दरवेश ने अपने अशआर, अपनी ग़ज़लें..तहत हो या तरन्नुम.. बड़े ही पुरसुकून और पुरअसर ढ़ंग से सुनायीं। पेशगी का यह अंदाज़ बेशक बहुत उम्दा था। पटल पर उपस्थित श्रोताओं की वाहवाही थी..कि थमने का नाम नहीं ले रही थी।

उम्दा रचनाओं को इतनी ख़ूबसूरती से पेश करने के लिए अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति की तरफ़ से श्री हरीश दरवेश का हार्दिक आभार !

.पुरुषोत्तम एन सिंह