ग़ज़ल
किस तरह कहूं उससे कभी प्यार नहीं था।
दिल मेरा किसी का भी तलबगार नहीं था ।।
दिल जोड़ने की बात फक़त करते रहे हम।
दुश्मन को मगर प्रेम ये स्वीकार नहीं था।।
कैसे उसे मुंसिफ ने गुनहगार बनाया ।
जिसका तो गुनाहों से सरोकार नहीं था।।
जो सामने दुश्मन के नहीं सर को झुकाता।
कैसे उसे कह दूं कि वो खुद्दार नहीं था ।।
मुश्किल की घड़ी उसने ज़माने को पुकारा।
उस वक्त कोई उसका मददगार नहीं था।।
बैठा था सरे राह मै बिकने के लिए कल।
पर कोई ज़माने में ख़रीदार नहीं था।।
उसको मैं बता देता ज़माने की हकीक़त ।
हर्षित तो अभी इतना समझदार नहीं था ।।
विनोद उपाध्याय हर्षित
बस्ती (उत्तर प्रदेश)