Tuesday, July 2, 2024
साहित्य जगत

ग़ज़ल

हुश्न की ताक़त के आगे, इश्क़ को झुकना पड़ा है
बच गया तलवार से तो, फूल से कटना पड़ा है ।

ज़िंदगी से बढ़के कोई, भी सज़ा होती नहीं
जंग की मानिंद इसको, रोज़ ही लड़ना पड़ा है ।

थक गया था करते करते, ज़िंदगी की नौकरी
मौत ने हंसकर बुलाया, तब मुझे मरना पड़ा है ।

खिल नहीं सकता जहां पर, कोई उल्फत का गुलाब
ऐसे सेहरा दिल के आगे, आज तो झुकना पड़ा है ।

मुल्क के कुछ दुश्मनों से,बात जारी है अभी
वर्ना मैं अंगार हूं, और राख में दबना पड़ा है ।

नाम तेरा लिख दिया, बादल पे आतिश एक दिन
दरमियां तब से सितारों के, मुझे रहना पड़ा है ।

आतिश सुल्तानपुरी
बस्ती (उत्तर प्रदेश)