ग़ज़ल
बुझते चेहरों का इक नगर देखा।
सबकी आंखों में डर ही डर देखा।।
मोम से हो गया हूँ मैं पत्थर।
मैंने दुनिया को इस क़दर देखा।।
रंजो ग़म का है उस पे यू साया।
उसको देखा तो चश्मे तर देखा।।
प्यार में हादसा न हो जाए ।
इसलिए उसको लौट कर देखा।।
ढूंढता फिरता हूं मैं दुनिया मे।
उसके जैसा न हमसफ़र देखा।।
उसकी तारीफ क्यू न करता मै।
कामयाब उसका हर हुनर देखा।।
पल में तोला है पल में माशा है ।
वक्त जीवन का मुख्तसर देखा।।
विनोद उपाध्याय हर्षित