Sunday, July 7, 2024
साहित्य जगत

गीत

निर्झर झरने सी ,
नभ के नीर सी,
बादल की बिजली सी,
भरी दुपहरी में ,
शीतल छांव सी,
संगीत में सरगम सी,
चंदा की चांदनी सी मै,
प्रभात में दिवाकर की
प्रथम किरण सी मै।
कलियों की चटकन सी मै,
पतझड़ में ! प्रतीक्षारत
खड़ी वृक्ष सी मै,
गुनगुनी सी धूप में,
परछाई सी मै,
नींद में अलसाई सी मै,
रण में ,रणभेरी सी मै,
हां ,यह मैं ही तो हूं
उसके हिस्से की धूप,
तो कभी,
मेरे हिस्से की धूप
की गर्मी सी मै,
हां यह मैं ही तो हूं,
गूंथती हर बार
नए भाव को
रचती नए आयाम हूं,
हर बार।
मैं माननी ! पर ,सबको सुनती हूं,
प्रश्न पूछती ?हर बार हूं मैं,
कि क्या मैं ! एक कवियत्री हूं?
कुछ तुम जैसी,
कुछ मुझ जैसी,
चिर परिचित सी
धूप मे परछाई सी,
सबके हिस्से की धूप
भी हुयी पराई सी
बंद मुट्ठी में
फिसलती रेत सी
संवाद में तकरार सी ,
काव्य में अलंकार सी
क्यूंकि हां ,सखी
मानो तुम या ना मानो
यकीनन ही !!!
हम सब कवियत्री है!!!

शब्द मेरे मीत
©डाक्टर महिमा सिंह
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)