Saturday, May 18, 2024
विचार/लेख

पर्यावरण दिवस पर अच्छी-अच्छी बातें व प्रवचन ,संकल्प हो गए हो तो आइए कुछ सच का भी सामना कर लें।

आर्थिक विकास की भारी कीमत हम पर्यावरण के नुकसान के रूप में चुकाते है।आज से दो दशक पूर्व बस्ती मुख्यालय को जोड़ने वाली लगभग हर एक सड़क के दोनो ओर भारी मात्रा में झाड़ीदार,इमारती लकड़ी वाले,जंगली पेड़ सहित फलदार और औषधीय व धार्मिक रूप से पवित्र पेड़ लगे दिखाई पड़ते थे ,जो भयंकर गर्मी में किसी भी साधन से यात्रा करने पर यात्री को छांव व शीतलता प्रदान करते थे । आस-पास के करीबी गांव वालों की गाय,भैंस ,बकरी भी अपना काम भर का चारा व घास पा जाती थी। भयंकर ठंड,और बरसात में पेड़ न काटने की शर्त पर सुखी टहनियां ,सूखे छाल आदि से ग्रामीण अंचल के लोग अलाव से लेकर चूल्हे तक कि जरूरत पूरा कर लेते थे ।
इन्ही पेड़ो पर दर्जनों किस्म के जंगली जानवरों ,पक्षियों ,जीव-जंतुओं के भोजन से लेकर बसेरा तक का इंतजाम बखूबी हो जाता था। गांव के बच्चों को मालूम था कब और कहाँ नीम अमरूद ,बैर ,कैथा,इमली,जंगल जलेबी,कमरख ,झरबेरा ,आम,जामुन, गूलर ,लहटौरा, फर-फर रेवरी ,फालसा मिलेगा किस ओर के पेड़ पर हॉगा, इस मौसम में। और वे गोल बना कर न केवल अपने स्वाद के लिए,परिवार के लिए बल्कि गावँ की बड़ी हो चुकी लड़कियों व नववधुओं ,चाची,काकी के भी स्वाद का इंतजाम थोड़ी बहुत खुशामद के रिश्वत में कर देते थे।
तब बन विभाग का सामाजिक वानिकी विंग का विस्तारी करण नही था,पीडब्ल्यूडी और जिला पंचायत ही के पास इन वृक्षों का मालिकाना था ,या फिर पट्ठे पर किसान इन्हें लगाते थे। अधिकांश मूल्यवान पेड़ो पर पहले टीन से नंबर लगाए जाते थे बाद में छाल हटा कर सफेद पेंट से लगाए जाने लगे । इन बृक्षों के निचले हिस्सो पर किसी वीआईपी के सड़क मार्ग से यात्रा के दौरान गेरू और चुने से पुताई हो जाती थी । रंगे हुए दरख्तों के बीच से जाती हुई काली पिच रोड मन को प्रसन्न कर देती थी।
इन दो दशकों में यह दृश्य बदल गया है आर्थिक विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर की आवश्यकता तथा निर्माण ने पर्यावरण के प्रत्यक्ष अनुभव को कड़वा बना दिया है।ऐसा भी नही है इस विकास के क्रम में पर्यावरण के संतुलन का कागजो में ध्यान नही रखा गया। कार्यदायी संस्थाओं nhai आदि को वन विभाग से इन बृक्षों को काटने की अनुमति उतनी ही संख्या में अन्यत्र जगह बृक्षा रोपड की शर्त पर ही मिलती थी। कितनी पूरी हुई ? यह तो जिम्मेदार राजनेताओं, अधिकारियों और पत्रकारों को पता हॉगा। फिलहाल वैसा दृश्य और माहौल तो घटा भी है।
इन दो दशकों में सामाजिक वानिकी और पर्यावरण जागरूकता के अंतर्गत, राज नेताओ ,अधिकारियों,फोटोबाज़ पर्यावरण प्रेमियों के लगाए हुए पौधों को आज बृक्ष के रूप में दिखना चाहिए था और इतना सघन कि बृक्ष लगाने के लिए जनपद में एक इंच भूमि भी बाकी नही रहती। पर हम सब गिनीज बुक में नाम दर्ज कराते रहे पर्यवरण प्रेमी दिखे इसका प्रयास रहा ,गड्ढे की खुदाई ,पेड़ लगाई,नर्सरी लगाई ,पानी दिलाई ,के बिल और बाउचर बनाने में व्यस्त रहे। परिणाम स्वरूप पर्यावरण व मौसम के असंतुलन का कुप्रभाव हमारे साथ साथ वे बेजुबान पालतू व जंगली जानवर ,पक्षी ,कीड़े मकोडो तक पर पड़ रहा है ,भोजन और उनके रहने के क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहे है तो वे भी शहरों तथा किसानों के खेतों की ओर चल पड़े है ,उसका भी नुकसान मनुष्यो को ही उठाना पड़ रहा है।
गमलों में पर्यावरण की रक्षा कर लेने की खुशफहमी पाले और तमाम पुरस्कार झोले में डाले पर्यावरण प्रेमियों को खीझ लगेगी ,उनकी प्रतिक्रिया होगी कि नकारात्मक सोच है ,ईर्ष्या है आदि आदि।मितरो मैं सब आरोप अपने पर स्वीकार कर लूंगा बशर्ते वो पुराने दृश्य ,सड़क पर न सही आसपास के क्षेत्रों में ही सही कोई वापस कर दे।