Wednesday, June 26, 2024
विचार/लेख

प्राचीन शिक्षा पद्धति का स्याह पक्ष

लेख/विचारप्रोफेसर शंकर शरण ने अपने लेख ‘गुरु-शिष्य परंपरा की महत्ता’ में शिक्षा की सनातनी पद्धति पर प्रकाश डाला है, परंतु यह प्रकाश सिर्फ एक ही पक्ष पर जान पड़ता है, जो हमारी शिक्षा पद्धति की महत्ता को दिखाता है। इससे इतर इस शिक्षा परंपरा का जो दूसरा पक्ष है वह आज के समय में स्वीकार्य नहीं हो सकता है। यह पक्ष है उन शूद्र, जनजातीय और महिला समाज का पक्ष जिन्हें इस महान शिक्षा पद्धति में शिक्षा का अधिकार नहीं था। लेखक महोदय ने अपने लेख में एकलव्य का नाम भी लिया है और इस नाम को गुरु-शिष्य परंपरा के अंतर्गत गुरु की अनुपस्थिति में भी उनके द्वारा शिष्य को दिए गए मार्गदर्शन से जोड़ दिया है, परंतु क्या यह उचित है कि एकलव्य को शिक्षा के अधिकार से सिर्फ इसलिए वंचित रखने का प्रयास किया गया, क्योंकि वह क्षत्रिय अथवा राजकुल से नहीं था? इस तिरस्कार के बाद भी यदि विद्यार्थी निज अभ्यास से शिक्षित हुआ तो उसे ईर्ष्यावश दंड देकर उसे गुरु दक्षिणा का नाम देना कहां की महानता थी। ऐसा ही प्रश्न आप कर्ण के विषय में द्रोण और परशुराम जैसे गुरुजनों से कर सकते हैं। क्या शिक्षा जाति और लिंग के आधार पर बंटनी चाहिए? निश्चित रूप से नहीं और यदि अगर ऐसा है तो उस शिक्षापद्धति को महान नहीं कहा जा सकता। उस शिक्षा पद्धति से आज की शिक्षा पद्धति कई मायनों में बेहतर है। बस कमी है तो उस गुरु-शिष्य के संबंधों और आचरणों की, जिसको पश्चिमी सभ्यता की शिक्षा पद्धति ने धीरे-धीरे करके हमसे छीन लिया। यदि प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति का इस प्रकार उपयोग किया जाए |कि सभी को समतामूलक शिक्षा की व्यवस्था सुनिश्चित हो और भारत का वह बड़ा वर्ग जो प्राचीन काल में इस शिक्षा पद्धति से वंचित रहा वह भी अन्य वर्गों की भांति ही समान शिक्षा प्राप्त कर सके तो निश्चित रूप से हम और हमारा देश एक ऐसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होंगे, जहां आचरण की सभ्यता विकसित होगी। इसके साथ-साथ एक महान शिक्षा पद्धति का भी विकास होगा, जिसमें आज के सारे विषयों के साथ-साथ सबसे महत्वपूर्ण विषय, जो मानवीय मूल्यों पर आधारित है, उसका भी विकास होगा। तब सही मायने में हमारा राष्ट्र विश्वगुरु के सपने को सच कर दिखाने के समीप होगा।

-राम आशीष चौधरी