Tuesday, July 2, 2024
साहित्य जगत

मां

गीत, गजल वा छन्दों में अक्सर हंसती रहती माँ

अक्षर -अक्षर कल्पे उसको,शब्द-शब्द में दिखती माँ ।

सीता,सती,अनसुइया बन,घर आंगन में घूम रही
शुचिता का वह अर्थ बन गयी,गंगा सी है बहती माँ ।

चांद पंहुच मैं नभ को छू लूं,दुनिया में आदर्श बनूं
रहूं मगन जीवन में अपने, नित प्रयास है करती माँ ।

अधरों पर स्मित जो आयी,उसकी वह आधार बनी
नींद कभी न जब भी आये,लोरी बनकर गाती माँ ।

कांटा मुझको चुभा कभी,पीड़ा से वह तड़प गयी
नया तौलिया मुझको देकर,खुद गीले में सोती माँ ।

पायल की तेरी रुनझुन माँ, पूजा की घण्टी लगती है
हंसवाहिनी देवी जैसी सुन्दर अद्भुत दिखती माँ ।

राजेश ओझा
मोकलपुर गोण्डा