Sunday, July 7, 2024
साहित्य जगत

…मजदूर…

मजदूर हूँ
पर मजबूर नहीं हूँ,
अपनों से दूर हूँ
इसलिए
भूख से कम
अपनों के लिए ज्यादा
परेशान हूँ।
थककर चूर भी हूं
भूख से बेहाल भी हूँ,
फिर भी परिवार के
सकुशल होने की आस में भी हूँ,
तभी सुकून में
घर की ओर बढ़ भी रहा हूँ।
कुछ अच्छे कुछ बुरे भी
हैं जमाने में,
तभी तो हम भी हैं
दुनिया के आशियाने में।
किसी ने भोजन, पानी
किसी ने मान दिया
किसी ने प्यार से
सोने का स्थान दिया।
सुबह अपनेपन से विदा किया
अधिक नहीं लेकिन
दिन भर की भूख मिटाने का
सामान दिया।
इसीलिए निःसंकोच
पूरे विश्वास से आगे बढ़ रहा हूँ,
अपनों के बीच होने की
उम्मीदों में जी रहा हूँ।
किसी दिन तो
मंजिल को पर पहुँच जाऊँगा,
अपनों को पाकर धन्य हो जाउँगा।

सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा(उ.प्र.)
8115285921
©मौलिक, स्वरचित