मुकम्मल ग़ज़ल पेशे ख़िदमत है॥
ग़ज़ल :–
ज़िन्दगी इस तरह गुज़ारी है
एक पल इक सदी पे भारी है ।
राख को देख कर हुआ महसूस
आग में कितनी पर्दादारी है ।
इक तेरे इंतेज़ार में अब तक
जिस्म साकित है सांस जारी है ।
नोट रिश्तों के ख़र्च कर डाले
पास यादों की रेज़गारी है ।
रूह पर इसका बस नहीं चलता
मौत तो जिस्म की शिकारी है ।
जब ताल्लुक़ नहीं रहा उस से
जाने कैसी ये बेक़रारी है ।
हौसला गर बुलन्द हो तो फिर
इक दिया आँधियों पे भारी है ।
वो तो आँखों मे ख़्वाब छोड़ गया
अब तो नींदों की ज़िम्मेदारी है ।
कोई नशशा असर नहीं करता
इश्क़ में ये अजब खुमारी है ।
वो है रब जानता है सब “नुसरत”
उस से फिर किसी होशियारी है ।
ताल्लुक़… रिश्ता
ख़ुमारी… नशे में होना
साकित… . बेजान
नुसरत अतीक़ गोरखपुरी ।