Saturday, June 8, 2024
साहित्य जगत

श्री कृष्ण-परिकररूप में देवी-देवताओं का अवतरण, श्री कृष्ण से उनकी एकरूपता)

*अथर्ववेदीया श्रीकृष्णोपनिषत्*

श्री कृष्ण-परिकररूप में देवी-देवताओं का अवतरण, श्री कृष्ण से उनकी एकरूपता)

सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वांग सुन्दर भगवान् विष्णु को श्री राम चन्द्र जी के रूप में (वन में भ्रमण करते हुए देख) वनवासी मुनिगण विस्मित हो गए ।वे उनसे बोले- “हे प्रभो! , यद्यपि हम जन्म लेना उचित नहीं समझते तथापि हमें आप के आलिंगन की उत्कण्ठा है।
तब श्री राम ने कहा- “आप लोग अन्य जन्म में मेरे कृष्णावतार में गोपिका होकर मेरा आलिंगन प्राप्त करोगे। ऐसे ही श्री कृष्णावतार से पूर्व जब देवताओं से भगवान ने उन्हें पृथ्वी पर अवतीर्ण होने के लिए कहा, तब ! वे बोले- “भगवन्! हम देवता होकर पृथ्वी पर जन्म लें, यह हमारे लिए बड़ी निन्दा की बात है; परन्तु आप की आज्ञा है, इस लिए हमें वहां जन्म लेना ही पड़ेगा। फिर भी इतनी प्रार्थना अवश्य है कि हमें गोप और स्त्री के रूप में वहां उत्पन्न न करें।जिसे आप के अंग- स्पर्श से वंचित रहना पड़ता हो; ऐसा मनुष्य बनकर हममें से कोई भी शरीर धारण नहीं करेगा; हमें सदा अपने अंगों के स्पर्श का अवसर दें, तभी हम अवतार ग्रहण करेंगे” रुद्र आदि देवताओं का यह वचन सुनकर स्वयं भगवान ने कहा- “देवताओं! मैं तुम्हें अंग स्पर्श का अवसर दूंगा, तुम्हारे वचनों को अवश्य पूर्ण करूंगा।”

भगवान का यह आश्वासन पाकर वे सब देवता बड़े प्रसन्न हुए और बोले- “अब हम कृतार्थ हो गये।” भगवान का परमानंदमय अंश ही नन्दराय जी के रूप में प्रकट हुआ। नन्दरानी यशोदा के रूप में साक्षात् मुक्ति देवी अवतीर्ण हुईं। सुप्रसिद्ध माया सात्विकी ,राजसी और तामसी- यों तीन प्रकार की बताघ गई है। भगवान के भक्त श्री रुद्र देव में सात्विकी माया है, ब्रम्हा जी में राजसी माया है और दैत्य वर्ग में तामसी माया का पादुर्भाव हुआ है। इस प्रकार यह तीन रुपों में स्थित है। इससे भिन्न जो वैष्णवी माया है,जिसको जितना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
हे देवताओं! सृष्टि के आरंभ काल में ही उत्पन्न हुई यह माया। भगवान के शरण के अतिरिक्त,जप आदि साधनों से भी नहीं जीती जा सकती। वह ब्रह्मविद्यामयी वैष्णवी माया ही देवकी रूप में प्रकट हुई हैं। निगम (वेद) ही वसुदेव हैं, जो सदा मुझ नारायण के स्वरूप का स्तवन करते हैं। वेदों का तात्पर्यभूत ब्रम्ह ही श्री बलराम और श्रीकृष्ण के रूप में इस महीतल पर अवतीर्ण हुआ। वह मूर्तिमान वेदार्थ ही वृन्दावन में गोप-गोपियों के साथ क्रीड़ा करता है। ऋचाएं उस श्री कृष्ण की गौएं और गोपियां हैं। ब्रम्हा लकुटी रूप धारण किये हुए हैं और रुद्र वंश अर्थात् वंशी बने हैं। देवराज इन्द्र सींग (वाद्य विशेष) बनें हैं। गोकुल नामक वन के रूप में साक्षात् वैकुंठ है। वहां द्रुमों के रूप में तपस्वी महात्मा हैं। लोभ-क्रोधादि ने दैत्यों का रूप धारण किया है , जो कलयुग में केवल भगवान का नाम लेने मात्र से तिरस्कृत (नष्ट) हो जाते हैं।

गोप रूप में साक्षात् भगवान् श्री हरि ही लीला-विग्रह धारण किए हुए हैं। यह जगत माया से मोहित है, अतः उसके लिए भगवान् की लीला का रहस्य समझना बहुत कठिन है। वह माया समस्त देवताओं के लिए भी दुर्जय। जिनकी माया की प्रभाव से ब्रम्हा जी लकुटी बने हुए हैं और जिन्होंने भगवान् शिव को बांसुरी बना रखा है, उनकी माया को साधारण जगत कैसे जान सकता है ? निश्चय ही देवताओं का बल ज्ञान है। परन्तु भगवान की माया ने उसे भी क्षण भर में हर लिया। श्री शेषनाग श्री बलराम बने , और सनातन ब्रम्ह ही श्री कृष्ण बने।सोलह हजार एक सौ आठ- रुक्मिणी आदि भगवान की रानियां वेदों की ऋचाएं तथा उपनिषद् हैं। इनके अतिरिक्त जो वेदों की ब्रम्हरूपा ऋचाएं हैं,वे गोपियों के रूप में अवतीर्ण हुई हैं। द्वेष चाणूर मल्ल है,मत्सर दुर्जय मुष्टिक है ,दर्प ही कुवलयापीड हाथी है। गर्व ही आकाशचारी बकासुर राक्षस है। रोहिणी माता के रूप में दया का अवतार हुआ है, पृथ्वी माता ही सत्यभामा बनीं हैं। महाव्याधि ही अघासुर है और साक्षात् कलि राजा कंस बना है। श्री कृष्ण के मित्र सुदामा शम हैं, अक्रूर सत्य हैं और उद्धव दम हैं। जो शंख है वह स्वयं विष्णु है तथा लक्ष्मी का भाई होने से लक्ष्मी रुप भी है।वह क्षीरसागर से उत्पन्न हुआ है,मेघ के समान उसका गम्भीर घोष है। दूध- दही के भण्डार में जो भगवान ने मटके फोड़े और उनसे जो दूध दही का प्रवाह हुआ, उसके रूप में उन्होंने साक्षात् क्षीरसागर को ही प्रकट किया है और उस महासागर में वे बालक बने हुए पूर्ववत् क्रीड़ा कर रहे हैं। शत्रुओं के संहार तथा साधुजनों की रक्षा में वे सम्यक रूप से स्थित हैं। समस्त प्राणियों पर अहैतुकी कृपा करने के लिए तथा अपने आत्मज रूप धर्म की रक्षा करने के लिए श्री कृष्ण प्रकट हुए हैं, यों जानना चाहिए। भगवान शिव ने श्री हरि को अर्पित करने के लिए जिस चक्र को प्रकट किया था, भगवान के हाथ में सुशोभित वह चक्र ब्रह्म स्वरूप ही है।

धर्म ने चंवर का रूप ग्रहण किया है, वायुदेव ही वैजन्ती माला के रूप में प्रकट हुए हैं, महेश्वर ने अग्नि के समान चमचमाते हुए खड्ग का रूप धारण किया है। कश्यप मुनि नन्द जी के घर में ऊखल बनें हैं और माता अदिति रज्जु के रूप में अवतरित हुई हैं।शंख, चक्र आदि जिनके आयुध हैं, सभी प्राणियों के मूर्धा देश में विद्यमान संसिद्धि अर्थात् जो परमसिद्धि हैं, उससे संश्लिष्ट जो बिन्दु अर्थात् तुरीयतत्व है, उसे ही विद्वानों ने सर्वात्मा कृष्ण तत्व माना है। ज्ञानी महात्मा देवताओं के जितने स्वरूप बतलाए जाते हैं तथा जिन- जिनको लोग देव रूप समझ कर नमस्कार करते हैं,(वे सभी देवता भगवान श्री कृष्ण के ही आश्रित हैं) इसमें संशय नहीं है। भगवान के हाथ की गदा सारे शत्रुओं का नाश करने वाली साक्षात् कालिका है। सारंग धनुष का रूप स्वयं वैष्णवी माया ने धारण किया है और प्राणसंहार काल ही उनका बाण है। जगत के बीज रूप कमल को भगवान ने हाथ में लीलापूर्वक धारण किया है। गरुण ने भाण्डीरवट का रूप ग्रहण किया है, और नारद मुनि सुदामा नाम के सखा बनें हैं। भक्ति ने वृंदा का रूप धारण किया है।सब जीवों को प्रकाश देने वाली जो बुद्धि है, वही भगवान की क्रिया -शक्ति है। अतः ये गोप -गोपी आदि सभी भगवान् से भिन्न नहीं हैं और विभु- परमात्मा श्री कृष्ण भी इनसे भिन्न नहीं हैं। उन्होंने (श्री कृष्ण ) स्वर्गवासियों को तथा समस्त वैकुंठ धाम को भू-तल पर उतार लिया है।

जो इस प्रकार जानता है,वह सब तीर्थों का फल पाता है और देह के बंधन से मुक्त हो जाता है- यह उपनिषद है।

आर्यावर्ती सरोज “आर्या”
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)