Wednesday, May 15, 2024
साहित्य जगत

बिकती सांसे

जल बिकते दुकानों पर,
तब हालात ठीक था।
बिकने लगीं हैं सांसे अब,
अब हालात गंभीर है।

प्रकृति के संग किए खिलवाड़,
अपने भविष्य के बाजी लगाकर।
छेड़ने में तो आनंद आया,
अब मसला गंभीर है।

पेड़ों को काट काटकर,
बनाएं भौतिक संसाधन।
वह पल तो चैन में था,
अब मिलना नज़ीर है।

किए हवाओं के जननी से,
अमानवीय कुकृत्य व्यवहार।
अब प्रकृति भी बदला ले रहा,
नहीं मिल रहा स्वच्छ समीर है।

मानव तुम भी इतना ना,
दोहन कर दो प्रकृति का।
कब किसका वक्त लौट आए,
खुदा के मर्ज़ी पर निर्भर है।

आलम आज का ऐसा है,
ऑक्सीजन से तड़पते देखा है।
हवाओं का अब मोल हो गया,
बिन हवा के जीवन गंभीर है।

मानव वर्ग न अगर सचेत हुए,
ऐसा दुर्गति दिन आयेगा।
क्षण भर सांसों खातिर,
कारखानों पर निर्भर हो जाएगा।

इसका का बहुत सरल निदान,
पेड़ लगाओ घर मैदान।
करो संरक्षण पेड़ों का,
सांसें पाओ स्वच्छ अपार।

आशीष प्रताप साहनी
भीवा पार भानपुर बस्ती
उत्तर प्रदेश 272194
8652759126