Saturday, May 18, 2024
साहित्य जगत

इस जमाने ने बदला ये क्या भेष है….?

इस जमाने ने बदला ये क्या भेष है
आदमी को ही आदमी से द्वेष है
दुविधा बड़ी मन बहुत है व्यथित
इस अवसाद से हर आदमी है ग्रसित

सच और झूठ में उलझा आदमी है बड़ा
कैसे पहचाने भारी है संकट खड़ा
क्रोध ईर्ष्या और द्वेष में जलता मनुज
बड़ी मुश्किलों का दौर है अब आ पड़ा

ऐ ऋतु क्या लिखूँ, बड़ा विचलित है मन
ठोकरे खाकर थक गया है अब ये मन
आदमी को है माया अब घेरे हुये
लूट ,कपट में सभी को हैं पेरे हुये

कौन अपना पराया समझता नही
आदमी लग रहा है कठपुतली यही
जिंदगी एक संग्राम सी लग रही
बड़ा बेबस है हर आदमी अब यही

एक दूजे से है फासले बढ़ रहे
आदमी ,आदमी से नही मिल रहे
हर जगह फायदा सोचता है मनुज
चाहे रिश्ते हो दुकान हो या हो घर

इस जमाने ने बदला ये क्या भेष है
अपने भारत का ये कैसा परिवेश है
सभ्यता ,संस्कृति जिसकी पहचान थी
उसमे ना प्यार,दुलार ना स्नेह शेष है ।

ऋतु ऊषा राय
आजमगढ़