Monday, July 1, 2024
साहित्य जगत

दर्पण के सामने खड़ी होकर…

दर्पण के सामने खड़ी होकर,
जब भी खुद को वो सँवारती हैं,,
उस दर्पण में मुझको साथ देख,
अचरज में पड़ जाती है,,,

शरमाकर कजरारी नज़रें नीचे झुका लेती हैं,,
पर कनखियों से मुझको ही देखा करती हैं,,,

यूं आँखों ही आँखों में पूछ लेती है इशारों में,,
बताओ कैसी लग रही हूँ इस बिंदिया के सितारों में,,

उसकी टेढ़ी बिंदी सीधी कर
मै जब अपना प्यार जताता हूँ,,,
उस पल मै अपने स्पर्श से,
उसको उससे चुरा ले जाता हूँ,,,

वो कहती है….
ये पायल चूड़ी झुमके कंगन
सब देते हैं मुझे तुम्हारी संगत,,
इनकी खनकती आवाजों में
सिर्फ तुम्हारा नाम पाती हूँ,,
दर्पण के सामने खड़ी होकर,
जब भी खुद को सँवारती हूँ,,,

वो कहती है ये भी सच है…..
पहरों दर्पण के सामने बिता कर ,
सिर्फ तुमको रिझाना चाहती हूँ,,,
तुम मेरे लिए सबसे पहले हो
,तुमको बताना चाहती हूँ,,

एक अदा से जुल्फें झटककर वो कहती है…
कहने को ये श्रृंगार है मेरा,
पर सही मानों में प्यार ओढ़ रखा है तेरा,,,
जिसे मैं हर बला की नज़र से बचा कर,
अपने पल्लू से बांधे रखना चाहती हूँ,,,
अपनी प्रीत हर रोज़ यूं ही सजा कर,
तुम्हें सिर्फ अपना ख्याल देना चाहती हूँ,,

दर्पण के सामने खड़ी होकर,
जब भी खुद को वो सँवारती है
उस दर्पण में मुझको साथ देख,
अचरज में पड़ जाती है….

-संध्या दीक्षित
बस्ती(उत्तर प्रदेश)