ग़ज़ल
अब तअल्लुक नही बहारों से
दब गया ज़िन्दग़ी के भारों से
दर्द फूलों ने जब दिये मुझको
दोस्ती तब किया हूँ ख़ारों से
बीच मझधार बच गई कश्ती
धोका खाया हूँ मैं किनारों से
होंठ हिलते नहीं सरे महफिल
बात होती है बस इशारों से
शूरमा जीत लें भले दुनिया
हार जाते नज़र के वारों से
ठग वो लेंगे खड़े खड़े तुमको
तू ज़रा बचना होशियारों से
देख कर उनको जान लो क्या है
हाल पूछो न ग़म ग़मगुसारों से
कुछ हकीकत में काम हो जाये
काम चलता न सिर्फ नारों से
आग़ से खेलना मैं जान गया
अब न डरता हूँ मै शरारों से
हमने हिम्मत जुटा लिया सागर
अब है लड़ना नदी के धारों से
वी पी श्रीवास्तव
बस्ती(उत्तर प्रदेश)