Saturday, July 6, 2024
साहित्य जगत

ग़ज़ल

अब तअल्लुक नही बहारों से 

दब गया ज़िन्दग़ी के भारों से

दर्द फूलों ने जब दिये मुझको
दोस्ती तब किया हूँ ख़ारों से

बीच मझधार बच गई कश्ती
धोका खाया हूँ मैं किनारों से

होंठ हिलते नहीं सरे महफिल
बात होती है बस इशारों से

शूरमा जीत लें भले दुनिया
हार जाते नज़र के वारों से

ठग वो लेंगे खड़े खड़े तुमको
तू ज़रा बचना होशियारों से

देख कर उनको जान लो क्या है
हाल पूछो न ग़म ग़मगुसारों से

कुछ हकीकत में काम हो जाये
काम चलता न सिर्फ नारों से

आग़ से खेलना मैं जान गया
अब न डरता हूँ मै शरारों से

हमने हिम्मत जुटा लिया सागर
अब है लड़ना नदी के धारों से

वी पी श्रीवास्तव
बस्ती(उत्तर प्रदेश)