Saturday, May 18, 2024
साहित्य जगत

कठिन दौर में (ग़ज़ल)

सुर को साध के बोल रहे सब.
शहद में विष को घोल रहे सब.

आपस में जो उलझ गई थी-
मन की गुत्थी खोल रहे सब.

देश के मूर्ख -निपट-अज्ञानी-
सत्ता की जय बोल रहे सब.

दांत नहीं हैं वे गुड़ -गट्टा-
मुंह में सिर्फ पपोल रहे सब.

बहला फुसलाकर वे हमसे-
मन की बात टटोल रहे सब.

हिंदू-मुस्लिम नाम पे वो अब-
जहर देश में घोल रहे सब.

अंधविश्वासी मिलकर केवल-
जय माता की बोल रहे सब.

भारत में मजबूत- टिकाऊ-
‘ग्राफीन-सूज’के सोल रहे सब.

रस की जगह लोग अब यारों-
जहर कान में घोल रहे सब.

‘लांकडाउन’ में लोग खेत में-
फलियां बैठ निकोल रहे सब.

सत्ता के आंगन में अब तो-
दिन में उल्लू बोल रहे सब.

लेकर के अब न्याय-तराजू-
बंदर मेंढक तौल रहे सब.

अशिक्षित भी अब पढ़लिखके-
अंतस के पट खोल रहे सब.

-डॉ सुरेश उजाला