Sunday, May 19, 2024
साहित्य जगत

पुस्तक समीक्षा-वेद मित्र का आत्म साक्षात्कार कराते उनके सानेट

करीब दो माह पूर्व आदरणीय गुरुदेव डाक्टर Suryapal Singh जी ने Ved Mitra Shukla जी की #हिंदी_सानेट की एक पुस्तक #एक_समंदर_गहरा_भीतर देते हुए कहा कि मैं इस पर कुछ लिखूं। जबकि सच यह था कि इस पुस्तक से पहले सानेट मैने बस सुना भर था,तो सानेट की पुस्तक पर ईमानदारी से कुछ लिखना कठिन लग रहा था। सानेट पढ़ने का लोभ जगा ,तो पढ़ तो गया लेकिन कुछ लिखने के नाम पर चुप हो गया। फिर वरिष्ठ साहित्यकार Deonath Dwivedi जी से सानेट पर कुछ चर्चा हुई,और जब कुछ लिखने को मन बना पाया तभी एक मित्र सानेट पढ़ने के लोभ में पुस्तक उठा ले गये। अभी पिछले हफ्ता जब पुस्तक वापस मिली तो अपने मन की बात लिख रहा हूँ ।

सानेट विदेशी काव्य छंदों का एक रुप है। इसकी शुरुआत सबसे पहले कहां से हुई,कहना मुश्किल है,फिर भी तमाम विद्वानों और अन्य स्रोतों से पता चला कि सबसे पहले सानेट ग्रीक की सूक्तियों से अस्तित्व में आया। तेरहवीं शती के मध्य में सानेट का अधिकांश प्रयोग इटली के लोक कवियों ने किया तो सानेट इटली का होकर रह गया। यह अलग बात है कि सानेट के सौंदर्य को लेकर दुनिया के कई देशों में क्रमिक सुधार हुआ और बाद में अंग्रेज़ी के सानेट को मौलिक कहा जाने लगा। सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन, वर्ड्स वर्थ और कीट्स ने खूब सानेट रचा। भारत वर्ष में वैसे तो कुछ विद्वान कवियों ने भी कुछ फुटकर सानेट लिखे हैं लेकिन आधिकारिक रूप से त्रिलोचन शास्त्री का नाम सानेट के लिए जाना जाता है।

मुख्य रूप से सानेट का छंद विधान कवि विद्वानों ने अपने-अपने अनुसार बनाया। सानेट की संरचना दो भागों में हुई थी। पहला अष्टपदी और दूसरा षष्टपदी। इस प्रकार कुल चौदह चरण बनते हैं ।अष्टपदी में पहली से चौथी की,चौथी से पांचवीं और पांचवीं से आठवीं पंक्ति का तुक मिलाया जाता था इसी तरह से दूसरी की तीसरी से,तीसरी से छठवीं की, छठवीं की सातवीं का तुक मिलाया जाता था। बाद में तमाम कवि मित्रों ने सानेट की मूल आत्मा को बचाते हुए अपने अनुरूप भी छंद विधान गढ़े।

रामदरश मिश्र जी आलोच्य पुस्तक की भूमिका लिखते हुए कहते हैं कि-“विधा कोई भी हो,शैली कोई भी हो उसमें व्याप्त तो लेखक ही रहता है। उसके जो निजी और सामाजिक जीवन के अनुभव होते हैं, भाव होते हैं, दृष्टि होती है वे सभी अपने-अपने ढंग से सभी कृतियों में रुप लेते रहते हैं। ”

अपने समय का सचेत बोध होना सजग मानव चेतना है। साहित्य धर्मी व्यक्ति जब अपने समय पर कलम चलाता है तो वह अपने समय के महत्वपूर्ण समस्याओं से साक्षात्कार कराता है। वेद मित्र का संवेदनशील मन जब मजदूरों को देखता है तो वे बुदबुदा उठते हैं-

“किस नगर-गांव से जुट आए मजदूर यहाँ
बैठे अलाव पर खुद में ही यों बने-ठने
जैसे भीतर गर्माहट के हैं पर्व मने
है भोर हुई,पर,क्या मतलब कोहरा जहाँ ।

ऊपर से झरे कुहासा ज्यों किस्मत काली
पर,मजदूरों की आंखों से सूरज उगते
औ उसी रोशनी में अपने ग्राहक तकते
जिनको वे बेच सकें अपने दिन की लाली।

होरी,नत्थू जैसों की तो थी देह बिकी
लेकिन, कंकाली गल्लर जैसे भी कितने
ये महानगर सो बिके सभी,चाहे जितने
आखिर इनकी रीढ़ों पर ही तो नींव टिकी।

थी भोर गई, दिन भी गुजरा,रौनक पसरी
पर,कौन सुने मजदूरों की ,दुनिया

कविता आम आदमी और उसके संघर्ष की पहचान करती है,इसलिए वह अधिक मार्मिक, व्यवस्थित और समझदारी पूर्ण होती है।कविता अपने समय की महत्वपूर्ण समस्याओं से परिचय कराती है,इसलिए ही वेद मित्र कहते हैं-

“कविताएँ, गजलें, नगमें हैं उगा रहे हम
बैठे आस-पास देखो,ये,वे औ तुम‌ भी
भीतर-बाहर बोल रहे औ कुछ गुमसुम भी
बो देंगे दो-चार बीज,अच्छा है मौसम।

बरसे थे बादल यों,बाकी नमी जमीं में
अखुवायेंगे जल्दी ही हर बीज दोस्त! जो
कविता से कविता फूटेगी मन हरने को
कह पाएगा कौन भला तब कमी जमीं में ।

अरे धरा तो मां होती है,सच ही कहता
शब्द अर्थ भावों से इसको आओ सींचें
मसि-कागद जो भी मिलता उनको हम भींचें
भीतर-भीतर कुछ तो है जो उगता रहता।

कविता है बोकर तो देखो यह तन-मन में
उम्मीदों के पेड़ उगेंगे फिर जीवन में ।

वेद मित्र आज भले गाँव से निकल कर देश की राजधानी में रह रहे हों लेकिन उनके अन्दर गाँव के प्रति अनुराग पूर्ववत बना हुआ है। शहर को गाँव जैसी निर्छलता देने की उनकी छटपटाहट बनी है। अगर गजलकार Vivek Dixit के मन में पीड़ा है कि-

“हमारे गाँव से वो रूठकर नही जाते
तो आपका ये शहर भी शहर नही होता।”

तो वेद मित्र के मन में शहर को गाँव न बना पाने की टीस है-

“उन खेतों, बाग,बगीचों को जो ला पाता
शहरों में तो सच कहता हूँ अच्छा होता
यह शहर रोग बीमारी ही देखो बोता
पर,शहरी होने का दम भरता इठलाता।

वे लोग गाँव के नहीं दिखावा हैं करते
फिरते न अहम में पागल होकर हार-हार
खुश रहते हैं सुख-दुख आपस में सदा बांट
मिट्टी का हो मिट्टी में ही जीते-मरते।

बस धूल-धुआं औ शोर-भीड़ से बने शहर
में कैसे रहना हो पाएगा सोचो जी
अब राह निकालो कैसे भी,पर खोजो जी
ढाने वाला है पूछो मत कब वक्त कहर।

है गाँव जहां भारत बसता है वहीं दोस्त!
यह बड़ा सत्य इसको भूलें हम नही दोस्त !

वेद मित्र राजधानी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। स्वयं की लिखी हुई तथा सम्पादित की हुई लगभग सात पुस्तकें हैं ।अभिजात्य वर्ग से अब चोली-दामन जैसा साथ है फिर भी वे संतुष्ट नही हैं ।

सड़कें, पहिए,शोर,आदमी मतलब के कब
खुश हूं, फिर भी ,सुबह-शाम इनमें ही खोकर
सपने जो भी एक-एक कर मरते जब-तब
कैसे कह दूं,कामयाब हूँ शहरी होकर।

बोझिल होती गई पीठ थे अरमां भारी
खुद को थामे हाथ उठे कब खातिर रब के
सच्चाई थी पता चली जब किस्मत हारी
आये हैं कब यहाँ आसमां हिस्से सबके ?

छलना होता जानबूझकर खुद सद खुद को
सबको ही यों पता असलियत पर हैं ऐठे
तनना-बनना,दोस्त! विवशता होती,समझो
खाली रहते हाथ सदा,सब कुछ कर बैठे।

शहरी पन का शगल पालना है मजबूरी
खुद से खुद की रोज बढ़ी अब है बस दूरी।

सघन अनुभूति से आत्मीय स्पर्श वाला सृजन मस्तिष्क में बड़ी देर तक ठहरता है। वेद मित्र का काव्य अक्सर ऐसी छुवन का अहसास कराता है। साथ में अपने भावों को बिना किसी भाषाई उलझाव के सीधे कह देने की सरलता भी उनमें है।

पहले सुनी कहानी उसके बाद बुनी है
बातें तो थी कही बहुत यारा ये-वो सब
लेकिन उनमें से तो हमने एक चुनी है
जाना, समझा,परखा,उनको माना ज्यों रब।

शब्द मिले हैं बड़ी तपस्या बाद मुखर हों
कागज पर अब उतर रहे हैं धीरे-धीरे
अच्छा ही यदि आखर-आखर अजर-अमर हों
पंक्ति-पंक्ति ने अर्थ गहे हैं धीरे-धीरे ।

एक कहानी कहती थीं अपनी भी अम्मा
बचपन था सो मोल नही समझा तब उनका
शब्द पिरोती जाग रही होती थी अम्मा
शब्द लिखे जाते थे,पर,पन्ना था मन का।

सच में उनको बार-बार मैं सुनना चाहूं,
वैसी एक कहानी मैं भी लिखना चाहूं।

सम्बन्धों के आत्मीय स्पर्श को बहुत गहराई से जीते हैं वेद मित्र। हमारे गाँव में आपसी सम्बन्धों को लेकर अवधी में अक्सर कहा जाता है “लाठी मारे पानी नाई फाटत” । मन के किसी कोने में हमारा सम्बन्ध मचलता रहता है। युवा कहानी लेखिका रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा अपनी कहानी “माई” में एक संवाद लिखती हैं-“मरे हुए रिश्तों की याद बड़ी जहरीली होती है।” अर्थात वे रिश्ते हमारे मन में बने रहते हैं। वेद मित्र का एक सानेट देखिए-

अगर नही वापस आए तो, याद करेंगे
भारी मन से आहें भरना होगा दुखमय
भीतर ही भीतर आंसू भी दोस्त झरेंगे
साथ नही फिर भी छूटेगा यह तो है तय।

जिन राहों पर संग रहे उनपर लौटेंगे
महसूसेंगे सांसे बहते हुए पवन में
पहले-सा तो नहीं मिलोगे,पर,खोजेंगे
रह रहकर के यादों के भरपूर जश्न में।

चाल-ढाल,धड़कन या पोर-पोर जो हैं सब
बातें बोलेंगी,होती थी संग-संग जो
अजब निराले होंगे जग की खातिर ये ढब
लेकिन सच है होगा अपना साथ सदा को।

लाख विछुड़ना हो,पर, साथी नही विछुड़ते
यादों के मेले में फिर फिर मिलते रहते।

कवि मानव मन की उहा-पोह, घुटन, तड़पन और लगभग घटित होने वाले भावों को पकड़ने के कौशल से लैस हैं । मन की अभिव्यक्ति को सरलता से शब्द दे देते हैं-

बसा सके जो इक घर अपना बड़ी बात है
लगे सरल पर,नहीं सरल है जीकर जाना
सच कर पाना घर का सपना बड़ी बात है
इस सच से शायद ही कोई हो अनजाना।

रिश्ते-नातों की दौलत जो उपजे घर से
असली धन ये मानव को मानव से जोड़े
इससे ही सारा जग चहके रह-रह करके
कौन यहाँ जो चाहे अपना घर वह छोड़े ?

पत्थर, ईंटें, घास-फूस हो या माटी घर
सोने से भी महंगा इनको प्यार बनाए
बड़े बड़े महलों में बसता प्रेम नही गर
दोस्त ! खंडहर ऐसे सारे महल कहाए।

प्यार बसे जिस जगह वहीं सच्चा घर बसता,
हंसता-गाता इस जग में जीवन रस भरता।

हम सनातनियों के मन में मानस के प्रति अगाध श्रद्धा है। मैं अक्सर कहता हूँ-“राम चरित मानस इस पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है।” वेद मित्र शुक्ल के मन में मानस के प्रति जो आदर भाव है, इस सानेट से जाना जा सकता है-

राम राम जितनी सुंदर भाषा तुलसी की
सार कहे जग का,जन-जन की बोली-बानी
गूंज रही सुन लो घर-घर भाषा तुलसी की
रामचरित मानस गाएं ज्यों हो गुरबानी।

धर्म-ग्रंथ मानें या मानें कथा-कहानी
एक बार जो सुन लेता उसको है भाये
ताप मिटा सुख पायें हैं सब ज्ञानी-ध्यानी
धन्य-धन्य मानुष वह जो मानस पढ़ पाये।

सरयू सम अवधी है नौ रस पान कराये
अवधपुरी के सियाराम की भाषा-बोली
राम चरित उस अवधी में सबको सर साये
चौपाई-दोहों से भरी हुई है झोली।

लोक जहाँ है सर्वोपरि रामचरित मानस,
मीठी बोली अवधी में पीते मिलजुल रस।

वेद मित्र शुक्ल मेरे बगल जनपद बहराइच के होनहार युवक हैं तथा अपनी और सम्पादित मिलाकर सात पुस्तकें हैं फिर भी अभी तक मैं शुक्ल जी से या इनके साहित्य से अनजान ही था। सानेट की इस पुस्तक से शुक्ल जी के मन,व्यवहार की भी पड़ताल हो गयी। एक प्रकार से कह सकते हैं कि ‘एक समंदर गहरा भीतर’ वेद मित्र शुक्ल का आत्म साक्षात्कार है। इन सानटों के माध्यम से वेद मित्र शुक्ल ने मानव मन की तमाम बातें बेहद शालीन और संयत ढंग से कही हैं । मन में घटित होने वाले भावों को सहज,सरल रुप में इन सानेटों में अभिव्यक्त किया गया है। हिन्दी सानेटों पर भविष्य में जब भी कोई काम होगा तो एकैडमिक पब्लिकेशन से प्रकाशित एक सौ छब्बीस सानेटों और दो 295 रुपये मूल्य वाली यह पुस्तक “एक समंदर गहरा भीतर” याद की जाएगी।

-राजेश ओझा
गोण्डा उत्तर प्रदेश