Monday, July 1, 2024
साहित्य जगत

“सुनो दशानन “

हे दशानन!
युगों-युगों से प्रतिवर्ष
जल रहे हैं
तुम्हारे लाखों-करोड़ों पुतले
पर तुम अब तक
नहीं जले,नहीं मरे
कोई और होता तो
अब तक शर्म से ही
मर गया होता।
पता नहीं तुमने कभी
इस बात पर ध्यान दिया या नहीं
कि तुम्हारा और रक्तबीज का भाग्य
काफी मिलता जुलता सा है,
मैंने रक्तबीज और तुम्हारी
कुण्डली खंगाली तो
यह पाया कि
तुम्हारे कुछ ग्रह
रक्तबीज से ,तनिक क्षीण थे,
रक्तबीज भाग्यशाली था
जो युद्ध में,माँ काली
उसके रक्त की
एक-एक बूंद पी गयी थीं,
पर दुर्भाग्य से
तुम्हारे साथ ऐसा नहीं हो सका था
क्योंकि, तुम्हारी नाभि पर
जब बाण लगा था तो
उसमें भरा हुआ सारा अमृत
जल कर भस्म नहीं हुआ था,
मुझे कहीं से पता चला है कि
तुम्हारी नाभि पर लगा बाण
कुछ तिरछा हो जाने के कारण
अमृत की कुछ बूंदें
धरती पर टपक गयी थीं
जो कालांतर में
पूरे विश्व की मृदा में फैल गईं
फिर शनैः-शनैः अन्न-जल के साथ
समा गयीं, हम मानवों के
रक्त व अस्थि-मज्जा में।
सुनो दशानन!
तुम तो जीवित हो
हम सब माटी के पुतलों के भीतर
शतानन व लखानन के रूप में
डरो मत लंकेश!
घोर अट्टहास करो क्योंकि
तुम इन कागजी पुतलों के
दहन मात्र से
मरने वाले नहीं हो,
सुनो दशानन!
तुम अजर-अमर हो
हम लोगों की आत्माओं में।
अनुराग मिश्र “ग़ैर”
जिला आबकारी अधिकारी अमरोहा(उत्तर प्रदेश)