Saturday, May 18, 2024
साहित्य जगत

कविता- मिले

जल को तरसे मेधा बरसे,
तुम निकले कब घर से।
पवन बहे मन को छुए,
नील में नयन निहारते रहे।

अग्नि जले पांव के तले,
सूर्य का प्रकाश जग को मिले।
अंधकार दूर हो द्वीप जब जले,
कर्म का परिणाम यही पे मिले।

राजा हो कभी रंग से मिले,
सागर जैसे नदी से मिले।
फूल जैसे चमन में खिले,
बादल जैसे धरती से आ मिले।

ख्याति खुद तुमसे गले मिले,
पत्थर जैसे पहाड़ो में है मिले।
पुण्य का फल जैसे सबको मिले,
पाप की सजा जैसे दुष्ट को मिले।

डॉ नवीन चौधरी
(एमबीबीएस)
लाला लाजपत राय मेडिकल कालेज-मेरठ