Wednesday, July 3, 2024
साहित्य जगत

पलता रहा भ्रम !

और मैं समझती रही,प्रेम!

वो,छलता रहा दिल!
और मैं छलती रही।

विस्मृत कर संसार
आ बैठी तेरे द्वार
ठौर -ठिकाना तेरा कहीं
और,मैं करती रही गुहार।

चटकाया प्रेम धागे को
किया विश्वास का तार तार
बुनती रही, गुनती रही
होकर भी जार- जार।

दंशन दर्द बन दिल में
चुभता रहा,
मैं बांवरी मीरा बन
विष का प्याला पीती रही।

हर बार ….
तेरे विश्वास घात पर
विश्वास का चंदन लेप
माथे पर मलती रही,

अमावस की रात में
अंधियारे से लड़ती रही,
चांदनी में जलती रही,
हर बार छलती रही।

आर्यावर्ती सरोज “आर्या”
लखनऊ ( उत्तर प्रदेश)