Wednesday, June 26, 2024
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जीत के लिए जाति से बड़ा कोई मुद्दा नहीं होता है-पंकज यादव

पिछले 3 विधानसभा चुनावों के नतीजों पर नज़र डालें तो एक बात के संकेत मिलते हैं कि उत्तर प्रदेश में मतदाता किसी एक पार्टी को बहुमत दे रहे हैं. और 403 विधानसभा सीटों वाले इस राजनीतिक रूप से जटिल प्रदेश में पूर्ण बहुमत के लिए 202 सीटें जीतना ज़रूरी है.

साल 2007 के चुनाव ने मायावती जी को 206 सीटों के साथ सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाया, वही 2012 के चुनाव ने अखिलेश यादव जी को 224 सीटों के साथ मुख्यमंत्री बनाया और 2017 में 312 सीटों के साथ योगी आदित्यनाथ जी यूपी के सीएम बने.

उत्तर प्रदेश में कभी भी विकास के मुद्दे पर चुनाव नहीं जीता जा सका है. यहां जीत के लिए जाति से बड़ा कोई मुद्दा नहीं होता है. यहां हर जाति विशेष को उसके वोट प्रतिशत के आधार पर ही राजनीतिक दल अपनी तरफ खींचने की भरपूर कोशिश करते रहे. राजनीति में पिछड़ों और दलित समुदाय का दबदबा बढ़ गया. राजनीति में फिर जिस जाति की जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी का फॉर्मूला लागू हो गया.

पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं

उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा 52 फीसदी है. खासतौर से यादव जाति का. पिछड़ा वर्ग में सबसे ज्यादा 11% मतदाता यादव समाज के हैं. इसी वजह से मुलायम सिंह को पूरा समर्थन मिला जिसके बाद वे 1989 , 1993, 2003 में मुख्यमंत्री बने फिर 2012 में अखिलेश यादव सत्ता पर काबिज हुए. यादव जाति के मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव तीन बार सत्ता पर काबिज हुए फिर उनके बेटे अखिलेश यादव . अब यादव जाति की वोट बैंक में सेंध लगने लगी है. 2007 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को 72 फ़ीसदी यादव ने अपना वोट दिया था. वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में यह घटके 63 फीसदी रह गया. जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में 66 फीसदी वोट मिले. पिछड़ा वर्ग में शामिल 79 जातियों पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए राजनीतिक कसरत शुरू हो चुकी है. पिछड़ा वर्ग में यादव और गैर यादव धड़ों में बंटा हुआ है. जहां यादव 11 फ़ीसदी हैं तो वही गैर यादव 43 फ़ीसदी हैं. वही पिछड़ा वर्ग में यादव जाति के बाद सबसे ज्यादा कुर्मी मतदाताओं की संख्या है. इस जाति के मतदाता दर्जनभर जनपदों में 12 फ़ीसदी तक हैं. वहीं वर्तमान में अपना दल कि इस जाति पर मजबूत पकड़ है जो भाजपा की सहयोगी पार्टी है. वहीं पिछड़ा वर्ग में मौर्य और कुशवाहा जाति की संख्या प्रदेश के 13 जिलों में सबसे ज्यादा है. वहीं वर्तमान में स्वामी प्रसाद मौर्या सपा मे और केशव प्रसाद मौर्य इस जाति के बड़े नेता के रूप में बीजेपी में हैं. पिछड़ा वर्ग में चौथी बड़ी जाति लोध है. यह जाति बीजेपी का परंपरागत वोट बैंक मानी जाती है. यूपी के दो दर्जन जनपदों में इस जाति के मतदाताओं की संख्या सबसे ज्यादा है. वही लोधी नेता के रूप में कल्याण सिंह का नाम कौन भूल सकता है. पिछड़ा वर्ग में पांचवीं सबसे बड़ी जाति के रूप में मल्लाह निषाद हैं. इस जाति की आबादी दर्जनभर जनपदों में सबसे ज्यादा है. गंगा किनारे बसे जनपदों में मल्लाह और निषाद समुदाय 6 से 10 फ़ीसदी है जो अपने संख्या के बलबूते चुनाव के परिणाम में बड़ा असर डालते हैं. वर्तमान में इस जाति के नेता के रूप में डॉक्टर संजय निषाद हैं जो भाजपा के साथ सरकार में शामिल है. पिछड़ा वोट बैंक में राजभर बिरादरी की आबादी 2 फ़ीसदी से कम है लेकिन पूर्वांचल के आधा दर्जन जनपदों पर इनका खासा असर है. इसके बड़े नेता के रूप में ओमप्रकाश राजभर और अनिल राजभर की गिनती की जाती है. ओमप्रकाश राजभर जहां सपा मे हैं. वहीं अनिल राजभर भाजपा में हैं. उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय को भी पिछड़ा वर्ग में गिना जाता है. उत्तर प्रदेश की जनसंख्या के लिहाज से मुस्लिमों की आबादी लगभग 20 फ़ीसदी है. सपा और बसपा ने इस जाति पर मजबूत पकड़ बना ली.

सवर्ण मतदाता

उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाता की आबादी 23 फ़ीसदी है, जिसमें सबसे ज्यादा 11 फ़ीसदी ब्राम्हण, 8 फ़ीसदी राजपूत और 2 फ़ीसदी कायस्थ हैं. इस जाति के वोट बैंक पर कभी भी किसी राजनीतिक दल का कब्जा नहीं रहा है. बल्कि ये जातियां खुद राजनीतिक पार्टियों में अपनी मजबूत दावेदारी को दर्ज कराती रही हैं. अब फिर सत्ता पर दोबारा से काबिज होने के लिए बसपा और सपा ब्राह्मणों को रिझाने के लिए भरपूर कोशिश कर रही हैं. बहुजन समाज पार्टी ने जहां 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले ब्राह्मण बाहुल्य जनपदों में सम्मेलन किया. बसपा ने 2007 के चुनावो में इस जाति के बलबूते सत्ता पर काबिज़ हुई. वहीं अब समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मण के देवता के रूप में पूजे जाने वाले भगवान परशुराम की मूर्ति लगाने की बात कही. हालांकि देखा जाए तो 1990 के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण और राजपूत जातियों का दबदबा पहले से कम हुआ है. उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद, हमीरपुर, गौतम बुध नगर, प्रतापगढ़, बलिया, जौनपुर , गाजीपुर, फतेहपुर, बलरामपुर, गोंडा राजपूत की आबादी वाले जिले हैं तो वही ब्राह्मण आबादी वाले जिलो की संख्या 2 दर्जन के पार है.

दलित वोट

उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित मतदाता की संख्या पिछड़ा वर्ग के बाद सबसे ज्यादा है. आजादी के बाद इस जाति के मतदाताओं पर सबसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी की पकड़ हुआ करती थी लेकिन बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद इस जाति के सबसे बड़े मसीहा कांशी राम बनकर उभरे. दलितों की मसीहा के रूप में बहुजन समाज पार्टी कि मायावती का नाम सबसे बड़ा है. मायावती ने दलितों के वोट बैंक के भरोसे पहली बार 1995 में मुख्यमंत्री बनी. फिर 2002 और 2007. वर्तमान में बसपा के कमजोर होने के बाद दलित वोट बैंक में सेंध लग चुकी है. भाजपा की पकड़ पिछड़ा और दलित वोट बैंक पर मजबूत पकड़ के चलते ही 2017 में 324 सीट मिल गई. यह इस बात का प्रमाण है की समय के साथ साथ पिछड़ा और दलित मतदाताओं पर भी भाजपा की पकड़ मजबूत हुई है.

उत्तर प्रदेश में साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में 40 से ज्यादा ऐसी सीटें थीं, जहां मामला लगभग बराबरी का था. कई विधानसभा सीटों पर जीत हार का अंतर 200 वोट से भी कम था. ऐसी सभी सीटों पर राजनीतिक पार्टियां ही नहीं उनके उम्मीदवार भी फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं. राजनीतिक पार्टियां इन सीटों पर कोई जोखिम उठाना नहीं चाहेंगी. वजह साफ है, 40 से 50 सीटों पर जीत-हार, उत्तर प्रदेश में किसी पार्टी का भविष्य तय कर सकती हैं. मेरा मानना है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में ‘हिंदू-मुस्लिम कार्ड’ जोर-शोर से चला. इस बार भी हालात अलग नहीं हैं.अखिलेश यादव ज़्यादा से ज़्यादा मुस्लिम समाज को अपनी तरफ़ खीच रही गई है “वो चाहते हैं कि मुस्लिम समाज दलितों के साथ न आ जाए, क्योंकि मुस्लिम समाज बसपा के साथ आ जाए तो चुनाव में एक बड़ा उलट-फेर हो सकता है।