Sunday, May 19, 2024
साहित्य जगत

‘प्रीति करो फिर छोड़ दो’…

‘प्रीति करो फिर छोड़ दो’ यही आज की रीति!
इसीलिए तुम मत करो कभी किसी से प्रीति!
हम बोते हैं स्वयं ही अपने दुख का बीज!
दुख पाते तब भाग्य पर है निकालते खीझ!
मैंने तेरे अधर पर रचा हास परिहास!
फिर भी तूने कर दिया मुझको आज उदास!
गजब गजब गुल खिला कर आयी तू इस बार!
बदला-बदला लग रहा यह तेरा व्यवहार!
दुख का कारण मोह है तजो मोह का जाल!
सारी चिंता छोड़ कर रहो सदा खुशहाल!
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तुम पत्थर दिल मत बनो सदैव बनो उदार
जो तुमसे नफरत करें उसको भी दो प्यार
हम दोनों अब हो गए सरिता के दो कूल
पत्थर के चट्टान पर नहीं खिलेंगे फूल
अपनी करनी पर नहीं तुम्हें तनिक है ग्लानि
मैं चाहे जैसे रहूं तुम्हें कौन सी हानि
करते करते थक गया मै तेरा मनुहार
अब तो मेरे प्यार को कर ले तू स्वीकार
उपवन में आये भला कैसे मस्त बहार
जब कांटो ने कर लिया फूलों पर अधिकार
(अतीत के झरोखे से)
डॉ. राम कृष्ण लाल जगमग