Sunday, May 5, 2024
विचार/लेख

देवरहा बाबा की जन्मस्थली ‘देवरिया’ का ऐतिहासिक गांव तिलई बेलवा

देवरहा बाबा की जन्मस्थली ‘देवरिया’ का ऐतिहासिक गांव तिलई बेलवा

(आर्यावर्ती सरोज “आर्या”)
देव नगरी ‘देवरिया’ देवरहा बाबा की जन्मस्थली रही है। देवरिया जिले के निकटतम गांव तिलई बेलवा में मेरा जन्म हुआ। प्रत्येक गांव की कोई ना कोई कहानी होती है। इतिहास होता है, उसकी अपनी विशेषता,महत्ता और पहचान होती है। उसका अपना मर्म,व्यथा,कथा होती है। मेरे गांव का इतिहास अति वृहद एवं रोचक है। जब अपने गांव के इतिहास को खंगालना शुरू किया तो टुकड़े-टुकड़े में ही सही बहुतायत में अनोखी और अद्भुत कहानियां सुनने को मिलती रहीं।
मेरी बुआ (वृंदा) जो कि मेरे पापा (श्री सूर्यभान मिश्र) से पंद्रह वर्ष और चाचा (ध्रुव नारायण मिश्र) से सत्रह वर्ष बड़ी थीं। मां (करुणा) और बुआ से सर्वाधिक जानकारी प्राप्त हुई। सर्वप्रथम यहां इस बात का उल्लेख सार रूप में प्रस्तुत करना अति आवश्यक है कि मेरा गांव तिलई बेलवा किसने बसाया। हमारे पूर्वजों एवं उनके वंशज के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें यहां सार रूप में प्रस्तुत है।

हमारे पूर्वज वत्स ऋषि के वंशज हैं। वे पेयासी के “मिश्र” वत्स गोत्रिय ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। उत्तरार्ध में वे स्थाई रूप से रेवली नामक ग्राम के निवासी हो गए। कालांतर में इस कुल के वंशज “फेकन बाबा” जो कि आगे चलकर “सदा व्रती बाबा” के नाम से प्रसिद्ध हुए।

बुआ द्वारा जो कहानी हमने सुनी थी उसका जिक्र यहां अति प्रासंगिक होगा- सदा व्रती बाबा के विषय में यह कथा प्रचलित थी कि वह सुबह पूजा संपन्न करने के उपरांत शंखनाद किया करते थे और साथ ही उनकी यह प्रतिज्ञा होती की उनके द्वार से कोई याचक निराश होकर नहीं लौटेगा। यह कार्यक्रम संध्या काल के संध्या वंदन तक निरंतर गतिमान रहता। किन्तु संध्या वंदन के उपरांत शंखनाद कर दान कार्य को पुनः आगामी सुबह तक स्थगित कर दिया जाता। अर्थात संध्या होने के पश्चात् किसी को कुछ भी देना निषिद्ध होता।
एक दिन सूर्यास्त होने के पश्चात् लगभग सौ नागा साधु आ गए और उनके द्वार खड़े होकर जय लक्ष्मी का उद्घोष करने लगे। बाबा ने बाहर आकर देखा तो नागा साधुओं का जत्था खड़ा था। बाबा हाथ में लालटेन लिए हुए थे। उन्होंने लालटेन नीचे रख कर सभी नागा साधुओं का कर बद्ध हो प्रणिपात निवेदन किया- हे ईश्वर स्वरूप संत समाज! आप सभी पूज्जनीय ! वरण्यं जन! की क्या सेवा करूं? जिससे आप प्रसन्न हों !
तब उन नागा साधुओं ने कहा- ” हमें तुम “अकरा” का खीर खिला दो ! बस! हमें इसी में प्रसन्नता मिल जाएगी।”
बाबा बड़े चिन्ता में पड़ गये।
घर के भीतर आकर दोनों हाथों से सिर को पकड़ कर खटिया पर बैठ गए। चिंतित हो कर सोचने लगे, अब .. “अकरा” (एक प्रकार का घास जो कि स्वयं:ही अनाज के बीच में उत्पन्न हो जाती है) कहां से लाऊं? अब हमारे सदाव्रत का पालन किस प्रकार से होगा? करूं, तो क्या करूं?
तभी उनकी पत्नी वहां पधारीं और उन्हें इस प्रकार चिंता में डूबा देख उनसे प्रश्न किया-“स्वामी! क्या बात है? आप बड़े चिंतित और परेशान लग रहें हैं?”
बाबा कुछ न बोले।
फिर उनकी पत्नी ने कहा- “कुछ तो बताएं ?”
तब बाबा ने कहा- “बाहर कुछ नागा साधु आएं हैं,और उन्होंने अंकरा की खीर खाने की इच्छा जताई है।”
अब कहां से लाऊं अंकरा? और कैसे बने खीर..? समस्या ऐसी है जिसका कोई निदान नहीं।
अब तो मेरा सदाव्रत गया….. धर्म का ह्रास हुआ हो अलग..!”
उनकी पत्नी ने कहा- ” बस इतनी सी बात..से आप परेशान हैं? आप आइए हमारे साथ…! वे उन्हें अपने साथ लेकर भंडार गृह में गईं। भंडार गृह में मिट्टी के बड़े-बड़े डेहरी (अनाज रखने के लिए) बनें हुए थे। उनमें से एक डेहरी पर पूरी शक्ति से उन्होंने अपने पैर से मारा। लात मारते ही डेहरी भरभरा कर गिर गई। पूरे घर में अंकरी फैल गई। बाबा ने विस्फारित नेत्रों से देखते हुए पूछा- ” इतनी सारी अंकरी? तुमने कहां से, कैसे इकट्ठा किया?”
तब उनकी पत्नी ने बताया- “गायों के खाने के लिए जो चारा काटकर आता है,वह जब गड़ासे से काटा जाता है तो उसमें से अंकरा झर-झर कर नीचे गिरा रहता है। उसे ही बटोर कर मैंने इकट्ठा किया है।”
बाबा उत्फुलित हो बोले-“अभी गाय दुहवाता हूं, तुम ! खीर बनाने की तैयारी करो! ”
उसी रात को बाबा ने आदमी जन लगा कर उसे कुटवाया,छंटवाया ,फटकवाया। दूध आया ,खीर बनी और सभी नागा साधु खीर खा तृप्त हुए। नागा साधु आशीर्वचनों से उन्हें विभूषित करने लगे,तभी लालटेन से एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई। नागाओं ने कहा- “तुम्हारा भंडार अक्षय रहेगा और लक्ष्मी की स्थाई कृपा रहेगी। आशीष दे कर नागा साधु चले गए।
ऐसी अनेकों और अद्भुत कहानियां हमने अपने बुजुर्गो से सुनें हैं।

सदाव्रती बाबा के तीन पुत्र थे जो बहुत समय तक रेवली में ही रहे। कालांतर में तीनों भाई पृथक-पृथक गांव में चले गए और पूरा का पूरा गांव बसाया। एक भाई रेवली के ही स्थाई रूप से वासी रहे। आज भी उस गांव में उनके वंशज निवास करते हैं। दूसरे चन्दाडीह चले गए और वहां के मिश्र एक ही खानदान से हैं। तीसरे देवरिया जिले के तिलईबेलवा ग्राम में आ कर बस गए। इसके पीछे की जो कहानी है, वह यह है, कि मझौली के राजा को सदाव्रती बाबा ने ऋण दिया था जिसके एवज में राजा ने सन् 1857के लगभग इन्हें तीन ग्राम दिया।

बलिया, आजमगढ़ और देवरिया में-
1- गौरी डिहरा – 1600बिगहा
2- चन्दा डीह – 2200 बिगहा
3- तिलई बेलवा – 600 बिगहा
मझौली राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार के मध्य स्थित होने के कारण उसका नाम *मध्यपल्ली* पड़ा। कालांतर में
उसका अपभ्रंश *मझौली* नाम से विख्यात हो गया।
1857 के लगभग गांव में जब हमारे पूर्वज बसने के लिए आए तब यहां जंगल ही जंगल था। कुछ आदिवासी, बंजारों के अतिरिक्त यहां पर चौहान जाति के लोग रहते थे। कालांतर में बंजारे और आदिवासी यहां से पलायन कर गए। और यहां के मूल निवासी चौहान यहां रह गये।

सदा व्रती बाबा के पुत्र जब यहां बसने के लिए आए तब अपने साथ अन्य सात जातियों को लेकर आए और उन्हें भी भूमि और भवन का इंतजाम कर उन्हें यहां बसाये।
नाई (हजाम), धोबी,बढ़ई, लोहार, चमार (हरिजन), यादव, बनिया के अतिरिक्त एक परिवार पुरोहित का भी बसाया। अब इन सभी जातियों की पृथक-पृथक टोली बन गई है जैसे- अहिर टोली,धोबी टोली,बढ़ई टोली लोहार टोली इत्यादि।
गांव तिलई बेलवा के सभी निवासी सम्पन्न और समृद्ध हैं। चाहे वह किसी भी जाति के क्यों ना हों। एक तो सबके पास जमीन खूब है दूसरा शहर के निकट होने के कारण रोजगार सुलभ है। यहां कोई भी व्यक्ति गरीब नहीं है।
आप समझ सकते हैं कि हमारे यहां हरिलाल चौहान ड्राइवर का काम करता था।आजीवन उसने सेवा कार्य किया अब उसका छोटा भाई बदन ड्राइवर का काम करता है। उसका बड़ा सा पक्का मकान है,भैंसें हैं, खेत है किसी चीज की कोई कमी नहीं। उसकी मां हमारे घर में चावल, गेहूं फटकने साफ करने के लिए आती थी, और उसकी चाची (ज्ञानी की मां) सब्जी काटने आटा गूंथने का काम करती।
हमारे परदादा श्री रामकिशुन जी के दो पुत्र और पांच पुत्रियां थीं। मेरे दादा जी कृपा राम बड़े थे और उनके छोटे भाई का नाम युगल किशोर था। छोटे दादा जी बचपन में ही घर छोड़कर कहीं चले गए। मेरे दादा जी के पांच बच्चों में दो लड़के और एक लड़की रह गए। श्री सूर्यभान मिश्र (पापा) बड़े हैं और चाचा श्री ध्रुव नारायण मिश्र छोटे हैं। बुआ दोनों लोगों से बड़ी थीं। बुआ का विवाह एक फौजी अफसर से हुआ। गवना के तीन माह पूर्व ही फूफा जी किसी लड़ाई में शहीद हो गए। बुआ ने आजीवन ब्रम्हचर्य का पालन किया और 60 वर्ष की आयु में ब्रम्हलीन हो गईं। चालीस वर्ष की अवस्था में बाबा (मेरे दादा जी) का देहांत हो गया। पापा की आयु तब आठ वर्ष की थी और चाचा की आयु पांच वर्ष। मेरी दादी (देवराजी देवी) ने ही इन दोनों का पालन- पोषण किया।
पापा सब रजिस्ट्रार बन गए और चाचा को बनारस एल एल बी करने के लिए भेज दिया। पापा उन्हें जज बनाना चाहते थे। लेकिन चाचा का पढ़ाई में मन नहीं लगा और वो वापस घर चले आए। फिर पापा ने उनके लिए ईंट भट्टा खोला। चाचा ने एक ईंट भट्ठे से चार भट्टा कर लिया दोनों भाइयों ने मिलकर खूब यश कीर्ति कमाई। बस,ट्रक, ट्राली, टैक्टर, बहुत सारी गाड़ियां। पापा ने घर बनवाया जिसमें आज भी दोनों लोगों का परिवार रहता है। भोजन पानी की व्यवस्था अलग-अलग परन्तु एक ही छत के नीचे सब एक साथ रहते हैं।
पापा बताते हैं कि सदाव्रती बाबा की बहु ने अन्न का निरादर कर दिया था जिसके कारण माता लक्ष्मी रुष्ट हो गईं और सदाव्रती बाबा को स्वप्न में दर्शन देते हुए बोलीं कि- “तुम्हारे घर में बहुत अनेति हो रहा है अब मैं यहां नहीं रह सकती।”
बाबा ने हाथ जोड़कर कर उन्हें रोकने की कोशिश की तब उन्होंने ने कहा-“अब मैं तेरे घर में सातवें पुश्त में फिर आऊंगी।”
मेरे पापा उस वंशज के सातवें पुश्त के वंश हैं।

गांव तिलई बेलवा में पहले अधिकतर मकान खपरैल के थे लेकिन मैंने जब से होश संभाला तबसे ईंट के पक्के मकान ही देखा है। मेरा घर पक्के ईंट का बना हुआ था और मेरे घर के ठीक पीछे बाबा लोग का घर है जो कि बहुत बड़ा है। पहले जमाने के ईंट से बना हुआ है। उसका पिछला हिस्सा जो पश्चिम में है वह दुतल्ला है। आज भी उसमें उन लोगों का एक परिवार रहता है। बाकी लोगों ने अलग- अलग जगहों पर घर बनवा लिया है।
गांव का मकान बहुत बड़ा था। पहले लोग उसे हवेली कहते थे। अब कई बड़े मकान बन गए हैं लेकिन फिर भी मेरा मकान आज भी बड़ा है। मेरी बुआ अक्सर कहा करती थीं कि यह क्या बड़ा मकान है? मेरे बाबा ने इसके चार गुने में मकान बनवाया था।
वर्तमान समय में दो गैस एजेंसी चल रही है जो एक दिलईबेलवा नाम से ग्रामीण एजेंसी है दूसरी शहर में आई टी आई के पास “सूर्या गैस एजेंसी” गोदाम गांव के निकट गांव बगहा में है।
गांव का भौगोलिक विवरण
देवरिया जिले से चार किलोमीटर दूर आगे की ओर दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) में गांव तिलई बेलवा स्थित है। इसके पश्चिम में खरजरवां गांव है जो मुस्लिम बाहुल्य है। उस गांव में पापा ने एक हनुमान मंदिर बनवाया है जिसके देख- रेख हेतु एक पुजारी भी नियुक्त कर रखा है। अब खरजरवां गांव शहर में मिल गया है और उसका एक भाग साकेत नगर के नाम से जाना जाता है।
फिर भी खरजरवां नाम अभी प्रसिद्ध है। मेरे गांव के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य कोण) में दानवपुर गांव है। जहां पर जिला जेल बना हुआ है। जो हमारे छत से दिखाई देता है।इसी जेल में नेहरू जी क़ैद थे। मेरे गांव के पश्चिम- दक्षिण (नैऋत्य कोण) में चांदमारी बना हुआ है जो कि मेरे छत से स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होता है। पुलिस वहां निशाना साधते हैं।हम बचपन में वहां से बंदूक की गोलियां बीन कर लाते थे और उससे खेलते।
उत्तर- पूर्व (ईशान कोण) में गोरस्थान और भंडारी गांव है।

गांव तिलई बेलवा के ठीक उत्तर में सकरापार गांव है। वहां पर एक स्थान है ‘धूसा’ वहां पर माता रानी की एक विशाल मूर्ति स्थापित है। उससे सटे दक्षिण भाग में एक मंदिर में काली मां की विशाल प्रतिमा है। पश्चिम में शिव मंदिर है जिसमें शिव लिंग स्थापित है और उसके ठीक सामने गौरी देवी का मंदिर है जिसमें गौरी मां की मूर्ति स्थापित है। लगभग सौ मीटर की दूरी पर एक ब्रम्हा जी का मंदिर है जिसे उसके पार्श्व गांव (चकिया) के किन्नरों के मुखिया ने बनवाया है। चकिया में किन्नरों का मुहल्ला है। अब वह शहर का अभिन्न अंग है।
सकरापार गांव में चैत्र की रामनवमी को मेला लगता है। हम जब छोटे थे तब अपनी बुआ के साथ मेले में जाते थे हमारे साथ ज्ञानी की मां होती थी जो कि हमें गोद में और कंधे पर बिठाकर मेले घुमाती थी। लगभग दो वर्ष पूर्व यानी 2019 में अपने गांव गई थी। 8 मई को मेरा वैवाहिक वर्षगांठ था। उस समय मैं अपने जीजा जी (प्रोज्जवल त्रिपाठी) दीदी (पुष्पा त्रिपाठी) के घर पर थी जो की चकिया में है। वहां से हम ‘धूसा’ पर माता रानी के दर्शन करने गए। साथ में छोटी बहन ज्योत्स्ना त्रिपाठी भी थी। जब हम वहां पहुंचे तो देखा कि बहुत कुछ परिवर्तन हो चुका है। बचपन में मेले में आती थी बड़े होने के पश्चात् विवाहोपरांत प्रथम अवसर था यहां आने का। माता रानी के दर्शनोंपरांत मैंने पुजारी जी से जिज्ञासा बस पूछ लिया-“पुजारी जी! इस मंदिर का निर्माण किसने करवाया है?”
पुजारी जी ने कहा- “सामने वह गांव दिखाई दे रहा है?”
मैंने कहा- जी
उन्होंने कहा- “वह गांव तिलई बेलवा है। उस गांव में एक महापुरुष रहते हैं। सूर्यभान मिश्र रजिस्ट्रार साहब। उन्होंने बनवाया है।बड़े ही नेक इंसान हैं। जिले भर में उनकी बड़ी ही प्रतिष्ठा है। उनके छोटे भाई ने ईंट,बालू और छण देकर काफी योगदान दिया है।”
तब मैंने हंसते हुए कहा-“मैं उसी गांव से आई हूं और आप जिनकी इतनी प्रशंसा कर रहे हैं, मैं उनकी पुत्री हूं और साथ में ये उनकी बड़ी पुत्री और दामाद हैं। और यह जो है उनकी छोटी पुत्री हैं।”
पुजारी जी को यह जान कर बड़ा ही सुखद आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा-“उनकी चार पुत्रियां हैं ना?”
मैंने कहा-“जी! मुझसे छोटी बहन लंदन में है वहां पर वह साइकॉलोजिस्ट है और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई कर रही है।”
यह सुनकर वे और भी प्रसन्न हुए। अपने हाथों से प्रसाद देकर खूब आशीर्वाद दिया उन्होंने।
हमें बड़ा आश्चर्य जनक लगा कि पापा ने कभी इसका जिक्र तक नहीं किया।
गांव तिलई बेलवा के ठीक दक्षिण में सोन्दा गांव है। मेरे गांव और सोन्दा गांव के बीच में एक बहुत बड़ा ताल है। जिसमें कमल और कौमुदनी खिलते हैं। वहां एक सारस पक्षी (युग्म) का जोड़ा निवास करता है। बालपन से ही देखती आ रही हूं। संध्या होते ही दोनों आकाश में उड़ते हुए ताल की ओर चले जाते हैं। मैं नीर्निमेष उन्हें तकती रहती। जब भी सूर्यास्त का समय होता छत के ऊपर सूर्य को डूबते हुए देखना बड़ा अच्छा लगता।एक कलात्मक आकृति उभर आती। पश्चिम में पोखर था। कुछ बाग-बगीचे, झाड़-झंखाड़ और सूर्य मानों उस नदी में डूबता चला जा रहा।
उसे विदा कर लम्बी श्वास भरती और फिर सुबह कल उसके आने का बाट जोहती।
गर्मी के दिनों में हम सब भाई बहन एक साथ छत पर सोते। चांदनी रात में मुझे नींद नहीं आती। पूरी रात चांद को तकती रहती और चांद पर बने गीत गाती रहती। चांद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर, वो बेचारा दूर से देखे करे ना कोई शोर..
धीरे धीरे चल चांद गगन में….
चांद छुपा ओ तारें हंसे ये रात अजब मतवारी है….
ऐसे जाने कितने गीत गाती।
बिजली का ये आलम था कि एक सप्ताह दिन में रहती तो दुसरे सप्ताह रात्रि में।
विवाहोपरांत एक बार गांव गई तो देखा कि सारस घायल है उसे जीप में बिठा कर अस्पताल ले जाने की तैयारी हो रही थी।
मैंने भैया से पूछा-“यह घायल कैसे हुआ?”
तब भैया ने कहा-“मैं ताल के पास घुमने-टहलने गया था वहां देखा यह घायल पड़ा हुआ था तो ड्राइवर से बोलकर इसे उठवा लाया अब इसे अस्पताल ले जा रहे हैं।”
थोड़ी ही देर में उसे इलाज कराकर ले आए लोग। अब वह बिल्कुल ठीक था।
मैं उसे देख कर खुश हो गई।

हमारे गांव तिलई बेलवा के बिल्कुल सीध में पूरब की बारी है। वहीं पर हमारा ट्यूबवेल भी है। हम जब बहुत छोटे थे तब ट्यूबवेल के पास ही धनकुट्टी (धानकुटने का मशीन) और कोल्हू भी लगा हुआ था जो कि बिजली से संचालित होता था। गन्ने का रस गिरने के लिए बहुत सरकरी नाली सीमेंट से बनी हुई थी और रस को इकट्ठा करने हेतु बड़ा सा चौकोर और गहरा सीमेंटेड कुआं। वहीं गुण भी बनाया जाता। वहां से पन्द्रह मीटर की दूरी पर एक बहुत पुराना और विशाल इमली का पेड़ था।
उस पर इमली गुच्छे-गुच्छे फलते। गांव का बूढ़ा गोंड़ गोबरी उस पर चढ़ कर इमली तोड़ता और गांव में बेचता। हमारे घर भी बुआ खरीदतीं और उसका अचार बनातीं। हम बच्चे ट्यूबवेल में नहाते। कच्ची-पक्की इमली बीन कर खाते। पेड़ से दस मीटर की दूरी पर बंजारा बाबा का स्थान है। पापा से जब मैंने पूछा- “बंजारा बाबा की कहानी क्या है?”
तब उन्होंने बताया-“ज्यादा कुछ तो उनके विषय में ज्ञात नहीं, किन्तु! हां! साल भर में एक बार रात में कुछ बंजारे आते हैं और उनका पूजन करने के बाद चले जाते हैं।”

गांव तिलई बेलवा के नैऋत्य कोण में जहां चांदमारी है उसके आस पास एक बंजारी माई और झारखंडी बाबा का स्थान है।एक जंगलनुमा स्थान जहां झाड़- झंखाड़ है। उसी में बीचोबीच एक “प्रस्तर” लिंगनुमा चपटे आकार में स्थित है। मेरे गांव के लोग,सोन्दा, दानवपुर और अगस्त पार के लोग शिवरात्रि पर वहां पूजन हेतु आते हैं। इसके विषय में एक कथा प्रचलित है। – सोन्दा गांव का कोई आदमी इस शिला को उखाड़ कर अपने घर सिलबट्टा बनाने के लिए ले गया परन्तु वह रात में ही अंधा हो गया तब उसके घर वाले उस शिला को वहीं यथास्थान रख गए। सोन्दा गांव के सम्पन्न जनों ने वहां मंदिर बनवाने का प्रयास किया किन्तु वे असफल रहे।

पश्चिम टोला में काली माई और दुर्गा जी का स्थान है। काली माई के स्थान को तो मेरे भैया ने नवीनीकरण करा दिया है किन्तु दुर्गा मां का स्थान पहले से बद्तर हालत में है। वहां पहले जैसा ही मिट्टी की पिण्डी है लेकिन साफ सफाई बिल्कुल नहीं है। चार साल पहले गोरखपुर में थी। उन्हीं दिनों मैंने स्वप्न में देखा कि मां दुर्गा के स्थान पर खड़ी हूं। वहीं पास में एक औरत मलीन सूती साड़ी में खड़ी है। थोड़े देर बाद फिर देखती हूं वहां नीम के पेड़ पर एक पालकी बंधी थी उस पालकी में बैठकर माता रानी सोलह श्रृंगार किए हुए लाल साड़ी और जेवरों से लदी हुई आपने शौम्य रूप में उस स्थान को छोड़ कर जा रही हैं। और मुझसे बोली कि यह स्थान छोड़कर जा रही हूं।
सुबह होते ही मैंने अपनी मां को फोन लगाया और सपने के बारे में बताया।
उस दिन मां अस्वस्थ थीं लेकिन सपना सुनने के बाद वह उसी दिन मां के स्थान पर जाकर पूजा चढ़ाई और धार का विशेष अर्घ विधिवत समर्पित किया।
जब गांव तिलई बेलवा में किसी लड़के का विवाह होता है तो परछावन से पूर्व ग्राम देवी देवता के स्थान पर जातें हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं गांव की महिलाएं पैदल अथवा गाड़ी से जाती हैं दुल्हा अपनी मां के साथ-साथ चलता है। मां हाथ में पानी से भरा लोटा लेकर चलती है।
देवी स्थान पहुंचने पर महिलाएं गीत गाती हैं-
“हम चली अइली कालिय मईया थान हो!

देईं ना कालिय मईया आपन आशीष हो,

सबक सोहाग झरीय – झुरी जाई हो राऊर सोहाग जनम एहवाती जी,

लेइना कवन शुभवा अंचरा पसारी हो लेईना कवन दुल्हा पटुकी पसारी हो।”

ठीक यही क्रम जब गांव तिलई बेलवा में कोई नई वधू आती है तो चलता है। ग्राम देवी-देवता के दर्शन कर लेने पश्चात् ही वधू श्वसुर -गृह में प्रवेश करती हैं।

गांव तिलई बेलवा से शहर जाने के रास्ते पर एक सुरतिहवा बाबा का स्थान है। मार्ग से 100 मीटर की दूरी पर खेत में एक पलाश का पेड़ है। वहीं उनका स्थान है। सभी ग्राम वासियों का उनपर असीम श्रद्धा है। कुछ वर्ष पूर्व की बात है। जिनके खेत में वह पलाश वृक्ष था,उन लोगों ने उसे कटवा दिया और उसके जड़ को आग लगा कर जला दिया।एक वर्ष के भीतर ही, जिन्होंने जलवाया था उन्हें लकवा मार दिया और वर्ष भीतर ही उनका प्राणांत हो गया। उनके पुत्र ने देखा कि पलाश पुनः स्वत:ही पल्लवित होने लगा है अतः उसने उस स्थान को ईंट और सिमेंट से चारों ओर से एक घेरा बनवा दिया।

हमारे गांव की भूमि उर्वर है और इसमें सभी अनाज,तेलहन,दलहन एवं शाक सब्जियों का उत्पादन होता है।
गांव के पूर्वी क्षेत्र में ब्राह्मण टोली है। पश्चिम में यादव, कुर्मी, नोनिया,बढ़ई, लोहार, सईंठवार,हजाम, दक्षिण पूर्व में धोबी,गोंड़, दक्षिण में चमार (हरिजन) आदि जातियां हैं।
पश्चिम टोला और बलुआ का स्थान सब शहर के अंतर्गत आ गया है। कुछ लोग बाहर से किराए पर भी रहते हैं। कुछ अन्य लोगों ने जमीन खरीद कर घर भी बना लियें हैं।
गांव तिलई बेलवा से उत्तर में, कोश भर की दूरी पर बगहा गांव है। पापा वहां पर गन्ने की खेती करवाते हैं। पच्चीस बिगहा गन्ना बोया जाता है। पापा ने वहां पर एक आदिवासी परिवार को बसाया था वे ही वहां के खेत का देखभाल करते थे। अब वे नहीं है तो उनका साढ़ू (बहन का पति) और बहन का परिवार रहता है,और देखभाल करते हैं। कुमार नाम का वह आदिवासी हमारे घर में गाय भैंस को चारा,दाना भी खिलाता है और उनका देखभाल करता है। पापा ने घर के ठीक सामने दो और मकान बनवाया है एक में भूसा रखा जाता है और दूसरे में एक तरफ गाय भैंस बछड़े रहते हैं और दूसरी तरफ गाड़ियां रखी जाती हैं।
पूरब की बारी में दो स्कूल है एक प्राइमरी और दुसरा जूनियर हाईस्कूल।
शहर जाने पर शुरुआत में ही रणहिया बारी पड़ता है। रणहिया बारी इस लिए विख्यात है कि यहां पर रक्षाबंधन के दिन कुश्ती प्रतियोगिता होती है और मेला लगता है।हम बच्चों को मेले में बड़ा आनन्द आता था।
रक्षाबंधन की रात्रि में पापा कवि सम्मेलन करवाते थे। वसंत पंचमी के दिन शास्त्रीय संगीत का आयोजन करवाते थे और शिव रात्रि में आज भी अखंड रामायण का पाठ होता है। दीदी का जन्म शिवरात्रि के दिन ही हुआ था तभी से हमारे यहां निरंतर अखंड रामायण पाठ होता चला आ रहा है।
पहले देवरिया जिले में ही पडरौना और कुशीनगर भी था। तब देवरिया की ख्याति पूरे देश भर में थी। चौदह शूगर मिलें थी। कुशीनगर तो विश्व भर में प्रसिद्ध है। देवरिया के बरहज में राम प्रसाद बिस्मिल की समाधि स्थल है। जो कि मेरे ससुराल और मायके के मध्य में स्थित है।
वर्ष में एक बार शहीदों के लिए एक कार्यक्रम करवाते हैं आवाम का सिनेमा उसके अंतर्गत हम बरहज से चौरी चौरा में शहीदों के परिजनों और परिवार को सम्मानित करते हैं।
मेरा द्वार बहुत बड़ा है। हम लोग के समय में गांव के सारे बच्चे हमारे द्वार पर एकत्रित हो जाते। हम सब मिलकर खूब खेलते खो- खो, कबड्डी,कमल का फूल, चिरैया ढ़ोल, पानी पहाड़,गेंदाभड़भड़,चोर सिपाही,छुपम छुपाई और जब गर्मी की छुट्टियां होती तो पुतरा- पतरी (गुड्डा गुडिया) का ब्याह रचाते। उसमें सचमुच का मटकोड़वा करते, तिलक चढ़ाते। लड़की वाले बारातियों को खाना खिलाते। हममें से एक बहन लड़की वाले और दूसरी बहन लड़के वाले बनते साथ में गांव के सारे बच्चे दोनों तरफ से होते।
तीन-चार हमारे बाग बागीचे हैं जिनमें आम, महुआ, श्रीफल (बेल),अमरूद आदि के बहुत सारे पेड़ थे। आज भी बहुत सारे हैं। हम गर्मियों में बुआ के साथ जाते हमारे साथ एक नौकर भी जाता जो पेड़ों पर चढ़ कर आम तोड़ता। गांव का पूर्ण रूपेण सुखद आनन्द जो हमने उठाया है उसे आजीवन विस्मृत नहीं कर पाएंगे। वह सुखद अहसास आज भी हमारे दिलों में जिंदा है।
अब आधुनिकीकरण के दौर में बहुत कुछ परिवर्तन हो चुका है।अब लड़कियां किसी के घर नहीं जाती। हमारे समय में हम सभी लड़कियां मिल कर गोर्वधन पूजन करतीं ।गोधन कूटने के पश्चात् पिड़िया लगाती। महीने भर रात्रि में वहां जाकर गीत गाती और अगहन दूज के दिन पिड़िया को कुड़हिया (पोखर) में बहा देती। उस दिन खूब उत्सव मनाती। कुड़हिया (पोखर) किनारे छठ पूजा भी होता है। वहां पर सबने अपना अपना षष्ठी माता का मंदिर बनवाया है।
वर्तमान में लगभग प्रत्येक घर की बहुएं नौकरी पेशा है। बहुत सारे अब नये घर भी बन गए हैं। अब पहले वाला गांव तो नहीं है…. फिर भी मेरा गांव तो… मेरा गांव है।
बात ससुराल की
औरतों का जैसे दो घर होता है। उसी प्रकार दो गांव अथवा दो शहर भी होता है। उपरोक्त वर्णन मेरे जन्म स्थली मेरे मायके अर्थात पिता के घर से संंबंधित है। अब थोड़ी बात राजा दशरथ के गांव की यानी श्वसुर का गांव अर्थात मेरे ससुराल के गांव का वर्णन।
मेरा ससुराल “मिश्रौली” देवरिया जिले के सलेमपुर तहसील से छः किलोमीटर पहले पड़ता है। इस गांव में शांडिल्य ऋषि के वंशज श्री मुख शांडिल्य गोत्र के तिवारी लोग रहते हैं। इस गांव को चंदा डीह के मिश्र लोगों ने बसाया था। कालांतर में वे उस स्थान को छोड़कर कहीं और जा बसे और इस गांव में तिवारी लोग आ बसे। यहां के जो तिवारी लोग हैं वे गोरखपुर के निकट महुआ बारी गांव से आए हुए हैं। मिश्रौली गांव में एक छोटा सा गांव है। इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त एक घर गोंड का है जिसे हमारे पूर्वजों ने बसाया था। दो घर लोहार और बाकी घर चमार (हरिजन) जाति के लोग बसे हैं। देवरिया से सलेमपुर के मुख्य मार्ग से सात सौ किलोमीटर भीतर में गांव बसा हुआ है। रोड से 500 मीटर अंदर ग्रामीण गैस एजेंसी है। जो कि मेरी सासू मां के नाम पर “अन्नपूर्णा गैस एजेंसी” है। यहां बाबू जी (श्री चन्द्रपति तिवारी) का बनवाया पुराना पुराना मकान है जिसमें बड़े श्वसुर जी (श्री मुक्ति नाथ तिवारी) के परिवार के कुछ लोग रहते हैं। दो लोगों ने बाहर घर बनवा लिया है। 2014 में मेरे पति प्रवीन त्रिपाठी ने भी अपना पृथक मकान बनवा लिया था तीन मंजिला मकान के पीछे एक बड़ा सा बागीचा भी है जिसमें १० आम, अमरूद,अनार,नींबू, करीपत्ता आदि और भी तरह के वृक्षों से सुसज्जित है।

गांव के नए घर में श्वसुर जी,सासु मा और एजेंसी पर काम करने वाले कुछ लोग रहते हैं। श्वसुर जी एजेंसी देखते हैं। हमारे यहां भी ईंट भट्ठे का कारोबार चलता था जिसे मेरे पतिदेव ने लगाया था और मेरे जेठ उसे चलाते थे। जेठ जी का रोड दुर्घटना में मृत्यु हो जाने के पश्चात श्वसुर जी और मामा श्वसुर जी मिल कर देखते थे। एजेंसी बनने के बाद ईंट भट्ठे को बंद कर दिया गया। बड़े श्वसुर जी के यहां अभी भी ईंट भट्ठे का कारोबार चल रहा है। पुराना घर भी दो मंजिला है। मैं ब्याह कर उसी घर में आई थी। पुराने घर के मुख्य द्वार के ठीक सामने बरम बाबा हैं। गांव के पूर्वी हिस्से में एक शंकर जी का मंदिर है। वहीं ३०० मीटर की दूरी पर काली मां का मंदिर भी है। मुख्य मार्ग से अंदर गांव में आने का रास्ता कच्चा था। 2012 में मेरे पति प्रवीन त्रिपाठी जी ने रोड को पक्का करवा। 2013 में गैस एजेंसी बना और २०१४ में नये भवन का निर्माण हुआ। मुख्य मार्ग से गांव में दो सौ मीटर अंदर पर एक पिपरबारी के बाबा का स्थान है। गांव के लोगों की उनमें बड़ी आस्था है। इस गांव की मिट्टी उपजाऊ है। अनाज तेलहन दलहन और सब्ज़ियों का अत्यधिक उत्पादन होता है। गांव के आस पास डोमवलिया, पुरैना, पुरैनी,पिपरा भान मति, मटिहरा,जमुआ,महुअवां पाण्डेय, गांव है।
मिश्रौली गांव से सोहनाग गांव ११ किलोमीटर के अंतराल पर है जहां परशुराम धाम है जो देश भर में प्रसिद्ध है।
(आर्यावर्ती सरोज “आर्या” जानी मानी कवयित्री, लेखिका हैं। लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में रहती हैं।

साहित्यिक उपल्ब्धियां : उपन्यास: छोटी मालकिन, कहानी संग्रह: कुछ पन्ने जिन्दगी के, काव्य संग्रह: सरोज काव्य मंजरी
करुणा साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थान
कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में शामिल कहानी “बूढ़ी अम्मा”
गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज।)