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वाराणसी की देव दीपावली एवं कार्तिक पूर्णिमा स्नान का पौराणिक महत्व

देव दीपावली मुख्य दीवाली के पन्द्रहवें दिन वाराणसी में प्रतिवर्ष मनाई जाती है।हिंदू धर्म में देव- दीपावली देवताओं के पृथ्वी पर उतरने के विश्वास में मनाई जाती है । देव दीपावली मनाने का कारण यह है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपूरासुर दानव भगवान शिव द्वारा मारा गया था तभी से भगवान शिव त्रिपुरारी कहलाये तभी से इस दिन विजय के उपलक्ष्य में देवताओं ने दीपावली मनाया और कार्तिक पूर्णिमा पर देवताओं की विजय दिवस के रूप में देव दीपावली मनायी जाती है।देव दीपावली यानी देवताओं की दीपावली जो काशी में बहुत ही भव्य रूप से मनाई जाती है।
असुर बाली की कृपा प्राप्त त्रिपुरासुर भयंकर असुर बन गया था महाभारत के कर्ण पर्व में त्रिपुरासुर के वध की कथा बड़े विस्तार से मिलती है भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली ने देवताओं से बदला लेने का प्लान कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत कठोर तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर लिया। तीनों ने ब्रह्मा जी से अमरता का वरदान मांगा ब्रह्मा जी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे की कोई ऐसी शर्त रख लो जो अत्यंत कठिन हो उसे शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो तीनों ने खूब विचार कर ब्रह्मा जी से वरदान मांगा हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पूरियां जब अभिजित् नक्षत्र में एक पंक्ति में आएं और अपने- अपने क्रोध के लिए जाना जाने वाला कोई व्यक्ति जब बिल्कुल शान्त होकर असंभव रथ पर सवार होकर असंभव वाण से उन पर वार करे तभी हमारी मृत्यु हो ब्रह्मा जी ने कहा तथास्तु!उन्हें तीन पूरियां प्रदान की गई तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजत पूरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने किया इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता है। इन तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोकों को आतंकित कर दिया था वे जहां भी जाते समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते हैं यहां तक की उन्होंने देवताओं को भी उनके लोकों से बाहर निकाल दिया था सभी ने मिलकर अपना सारा बल लगाया लेकिन त्रिपुरासुर का प्रतिकार नहीं कर सके अंत में सभी देवताओं को तीनों से चुप-चुप करना पड़ा अंत में सभी को शिव की शरण में जाना पड़ा। भगवान शंकर ने कहा कि सब मिलकर के प्रयास क्यों नहीं करते देवताओं ने कहा कि यह हम करके देख चुके हैं तब से उन्हें कहा कि मैं अपना आधा बाल तुम्हें देता हूं और तुम फिर प्रयास करके देखो लेकिन संपूर्ण देवता सदाशिव के आधे बाल को संभालने में असमर्थ रहे तब शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का संकल्प लिया। देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया अब उनके लिए रथ और धनुष बाण की तैयारी होने लगी जिससे रण स्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके इस संभव रथ का पुराणों में विस्तार से वर्णन है। पृथ्वी को ही भगवान ने रथ बनाया सूर्य और चंद्रमा पहिए बन गए श्रेष्ठ सारथी बने विष्णु , मेरुपर्वत धनुष और वासुकी बने उसे धनुष की डोर। उस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई । इस समय भगवान उस रथ पर सवार हुए तब सकल देवताओं के द्वारा संभाला हुआ यह रथ भी डगमगाने लगा तभी विष्णु भगवान वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े और उन घोड़ो और वृषभ के पीठ पर सवार होकर महादेव ने उसे असुर नगर को देखा और पाशुपताश्त्र अस्त्र का संधान किया। तीनों पुरियों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे। अमोघ वाण में विष्णु ,वायु ,अग्नि और यम चारों ही समाहित थे ।अभिजित नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने वाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया तथा तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए। त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गये येआंसू जहां गिरे वहां रुद्राक्ष का वृक्ष उग आया । रुद्र का अर्थ शिव और अक्ष का आंख अथवा आत्मा है। तभी से त्रिपुरासुर पर विजय के उपलक्ष में देव दीपावली मनाई जाने लगी।
एक अन्य कथा के अनुसार काशी में देव दीपावली उत्सव मनाए जाने के संबंध में मान्यता है कि राजा देवदास ने अपने राज्य काशी में देवताओं के प्रवेश को प्रतिबंधित कर दिया था कार्तिक पूर्णिमा के दिन रूप बदलकर भगवान शिव काशी के पंच गंगा घाट पर जाकर गंगा स्नान कर ध्यान दिया यह बात जब राजा देवदास को पता चला तो उन्होंने दिन देवताओं के प्रवेश प्रबंध को समाप्त कर दिया इस दिन सभी देवताओं ने काशी में प्रवेश कर दीप जलाकर दीपावली मनाई थी देव दीपावली एक दिव्य त्यौहार है।
मिट्टी के लाखों दीपक गंगा नदी के पवित्र जल पर तैरते हैं। पूजा के साथ विभिन्न घाटों और आसपास के राजसी आलीशान इमारत की सीढ़िय धूप की पवित्र मजबूत सुगंध से भर जाता है। इसे कार्तिक महोत्सव के रूप में भी जाना जाता है या शरद पूर्णिमा के दिन लंबे महीने की पड़ती है। देव दीपावली समारोह सचमुच देवताओं के लिए किया जाता है इस समय में कई लाख मिट्टी के दीपक घाट की सीढ़िया पर सूर्यास्त पर जलाए जाते हैं जो वाराणसी का एक बहुत ही खास नदी महोत्सव है और यह एक पवित्र शहर के लिए और आकृतिकों के लिए देखना चाहिए।धार्मिक मान्यता है कि इस दिन स्वयं देवता पृथ्वी पर उतर कर मां गंगा में स्नान करते हैं और भगवान शिव की आराधना करते हुए दीप प्रज्वलित करते हैं इस पावन अवसर पर पूरा बनारस हजारों दीपों की रोशनी में जगमगा उठता है। देव दीपावली के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान करना अत्यंत पूण्यकारी माना जाता है यदि गंगा स्नान न करें सकें तो घर पर पानी में गंगाजल मिलाकर निम्न श्लोक के वाचन के साथ स्नान करें ।

“गंगे च जमुने चैव गोदावरी सरस्वती।
नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु।।”

इसके बाद घर के मंदिर को साफ कर भगवान शिव, विष्णु और अन्य देवी देवताओं की विधिवत पूजा किया जाता है पूजा के बाद दीपक जलाकर मंदिर में व घर के चारों ओर तथा आंगन में दीप प्रज्वलित किया जाता है।शाम के समय प्रदोष काल में भगवान शिव की विशेष आराधना की जाती है उन्हें फल, फूल, दूध और धूप अर्पित किया जाता है इसके बाद आरती कर परिवार सहित दीपदान किया जाता है। मान्यता है इस दिन गंगा नदी में दीप प्रवाहित करने से पापों का नाश होता है और जीवन में सुख शांति समृद्धि प्राप्त होती है।
दीपावली और देव दीपावली में मुख्य अंतर। मुख्य उत्सव भारत के पवित्र शहर वाराणसी में मनाया गया जाता है यहां लोग हजारों दीप जलते हैं देवताओं से प्रार्थना करते हैं उनके आशीर्वाद की कामना करते हैं भगवान राम के सम्मान में मनाए जाने वाले दीपावली त्यौहार के विपरीत देव दीपावली भगवान शिव का सम्मान करती है या उसे दिन का प्रतीक है जब भगवान शिव ने त्रिपुरासुर शक्तिशाली राक्षस का वध किया था जबकि दीपावली इस बात का प्रमाण है प्रतीक है कि जब भगवान राम ने रावण का वध किया था।

कार्तिक पूर्णिमा स्नान:-

हिंदू धर्म में कार्तिक पूर्णिमा का दिन बेहद शुभ माना जाता है मान्यता है कि इस दिन खुद देवता पृथ्वी पर आते हैं और पवित्र नदियों में स्नान करते हैं यही कारण है कि कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा या अन्य पवित्र नदियों में स्नान करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और जन्म-जन्म अंतर के पापों का नाश होता है।

-डॉ त्रिभुवन प्रसाद मिश्र

वरिष्ठसाहित्यकार