मोक्ष तीर्थ गया पर विशेष :-
भक्त राज प्रहलाद का नाम प्रसिद्ध है इसी कोटि के भक्त थे गयासुर । गयासुर ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाए। इस वरदान के चलते लोग भय मुक्त होकर पाप करने लगे और गयासुर का दर्शन करके फिर से पाप मुक्त हो जाते थे इससे बचने के लिए यज्ञ करने के लिए देवताओं ने गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ करने के लिए दे दिया जब गया सुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया यही पांच कोस जगह आगे चलकर गया बन गया। गयासुर ने स्वयं को देवी देवताओं से भी अधिक पवित्र होने का वरदान मांगा था और वैसा ही हुआ।
कौन था गयासुर ?
श्री भागवत पुराण और वायु पुराण के अनुसार वह भी अपने पिता त्रिपुरासुर की तरह नारायण का भक्त था। विष्णु पद मंदिर का निर्माण इसी स्थान पर किया गया माना जाता है जहां कथित तौर पर श्री विष्णु ने असुर त्रिपुरासुर का वध कर उसे भूमिगत कर दिया था। कहा जाता है कि त्रेता युग में वर्तमान बिहार के मगध में उसका निवास था ।पौराणिक कथाओं के मुताबिक गयासुर बहुत धार्मिक और पुण्य आत्मा था उसने कोलाहल पर्वत पर कठित तपस्या की थी उसके त्याग से प्रसन्न होकर त्रिदेव( ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ने उसे वरदान मांगने को कहा। गया सुरने कहा कि सभी देवताओं के साथ अनंत काल तक इस जगह में रहे और जो भी श्रद्धा से पूजन करेगा उसके पितरों को भी मोक्ष मिले साथ ही यह जगह उसके नाम से जानी जाए भगवान विष्णु ने उसे वरदान देते हुए कहा कि यह स्थान अब “गया तीर्थ” के नाम से जाना जाएगा। मान्यता है कि गयासुर ने अपने शरीर त्यागने के लिए उत्तर की तरफ पांव और दक्षिण की तरफ मुंह करके लेट गया था। ऐसा कहा जाता है कि उसका शरीर पांच कोस में फैला हुआ था इसलिए उस पांच कोस के भूखंड का नाम “गया खंड”पड़ गया। गयासुर के पूण्य प्रभाव से ही वह स्थान तीर्थ रूप में स्थापित हो गया। आज भी हिंदू धर्म में गया का काफी महत्व है जो भी गया में अपने पितरों को पिंडदान करता है उसके पितृ तृप्त हो जाते हैं। गया में श्राद्ध कर्म करने से पितरों को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। एक विवरण के अनुसार पिता त्रिपुरासुर की हत्या भगवान शिव के हाथों होने के बाद पुत्र गयासुर उसके स्थान पर राजा बन गया। गयासुर ने अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए देवलोक पर आक्रमण कर दिया अपने जन्म के बाद वह वर्तमान कश्मीर क्षेत्र के कोलाहल पहाड़ों में ध्यान करने के लिए गया जहां उसने बहुत लंबे समय तक अपना सांस रोक कर खड़े रहने की प्रसिद्धि पाई। इंद्र और अन्य देवता उसकी गहन तपस्या से भयभीत हो गए । देवताओं ने भगवान विष्णु से संपर्क किया उनसे गयासुर के आगे के ध्यान को रोकने के लिए कहा तब भगवान विष्णु ने गयासुर की तपस्या रोकने के बदले में वरदान देकर उसकी तपस्या समाप्त करने के लिए एक युक्ति सोची। वह अन्य देवताओं के साथ गयासुर के सामने प्रकट हुए और उसे मन चाहा वरदान दिया। वरदान से उत्साहित होकर उसने अन्य देवताओं के खिलाफ जघन्य अत्याचार करना शुरू कर दिया। त्रिमूर्ति ने गयासुर के व्यवहार पर ध्यान दिया और अंततः उसे दंडित करने का निर्णय लिया। उन्होंने ब्राह्मणों का रूप धारण करके गयासुर का सामना किया और कहा कि वह उसके शरीर पर यज्ञ करना चाहते हैं जैसे ही गयासुर बलिदान के लिए खुद को बेदी के रूप में सेवा करने के लिए सहमत हुआ उसने अपने शरीर में काफी वृद्धि कर ली उसका सिर तुरंत गिर गया और ब्रह्मा और अन्य देवताओं ने उसके सिर रहित शरीर पर अनुष्ठान किया हालांकि अनुष्ठान के समापन के बाद भी गयासुर ने हार नहीं मानी और अंत में उसे स्वयं भगवान विष्णु द्वारा मारना पड़ा। उन्होंने अपने दिव्य सुदर्शन चक्र की मदद से गयासुर के शरीर को तीन टुकड़ों में काट दिया जिसका सिर वर्तमान गया शहर में विष्णु पद मंदिर में(विष्णु को समर्पित),उसकी नाभि विरजा मंदिर में ( ब्रह्मा को समर्पित) वर्तमान उड़ीसा शहर के जाजपुर शहर तक पहुंची और उसे “नाभि गया” कहा गया जबकि उसका पैर श्री कुक् कोटेश्वरक स्वामी मंदिर में ( शिव को समर्पित) वर्तमान आंध्र प्रदेश के पीठापुरम् शहर तक पहुंचा और इसे “पद गया” कहा गया।गयासुर ने कहा कि हे नारायण! मेरी इच्छा है कि आप सभी देवताओं के साथ अप्रत्यक्ष रूप से इसी शीला पर विराजमान रहे और यह स्थान मृत्यु के बाद किये गये धार्मिक अनुष्ठानों के लिए तीर्थ स्थल बन जाए। श्री विष्णु ने कहा गया कि तुम धन्य हो तुम जीवित अवस्था में भी लोगों के कल्याण का वरदान मांगा है और मृत्यु के बाद भी मृत्यु और आत्माओं के कल्याण के लिए वरदान मांग रहे हो तुम्हारी इस कल्याणकारी भावना से हम सब बंध गये है तब भगवान श्री हरि ने आशीर्वाद दिया कि जहां गया स्थापित हुआ है वहां पितरों के साथ तर्पण आदि करने से मृत आत्माओं को पीड़ा से मुक्ति मिलेगी और इस क्षेत्र का नाम गयासुर के अर्ध भाग “गया” तीर्थ नाम से विख्यात होगा और स्वयं यहां मैं विराजमान रहूंगा। गया तीर्थ में समस्त मानव जाति का कल्याण होगा वहां पर भगवान श्री विष्णु ने अपने पैर का निशान स्थापित किया है जो आज भी वहां स्थित है। गया विधि के अनुसार श्राद्ध फल्गु नदी तट पर विष्णु पद मंदिर में अक्षयवट के नीचे किया जाता है। पिंडदान की शुरुआत कब और किसने की ? यह बताना उतना ही कठिन है जितना कि भारतीय धर्म संस्कृति के उद्भव की कोई तिथि निश्चित करना। गया के स्थानीय पंडों का कहना है कि सर्वप्रथम सतयुग में ब्रह्मा जी ने पिंडदान किया था महाभारत के वन पर्व में भीष्म पितामह और पांडवों की गया यात्रा का उल्लेख मिलता है। श्री राम ने महाराजा दशरथ का पिंडदान गया में किया था गया के पंडितों के पास उपलब्ध साक्ष्य से स्पष्ट है कि मौर्य और गुप्त राजाओं से लेकर कुमारिल भट्ट, चाणक्य , राम कृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु जैसे महापुरुषों का भी गया में ही पिंडदान करने का प्रमाण मिलता है।
गया कि प्रेतशिला जहां प्रेतों का रहता है डेरा:
गया से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर प्रेत शीला नाम का एक पर्वत है यह गया धाम के वायव्य कोण यानी उत्तर- पश्चिम दिशा में है इस पर्वत की चोटी पर प्रेस शीला नाम की वेदी है लेकिन पूरे पर्वतीय प्रदेश को प्रेस शीला के नाम से ही जाना जाता है । इस प्रेत पर्वत की ऊंचाई 975 फिट है। जो लोग सक्षम है वह लगभग 400 सीढ़ियां चढ़कर प्रेस शीला नाम की वेदी पर पिंडदान के लिए जाते हैं जो लोग वहां नहीं जा सकते वह पर्वत के नीचे ही तालाब के किनारे या शिव मंदिर में श्राद्ध कर्म कर लेते हैं प्रेतशिला बेदी पर श्राद्ध करने से किसी कारण से अकाल मृत्यु के कारण प्रेत योनि में भटकते प्राणियों को भी मुक्ति मिल जाती है वायु पुराण में इसका वर्णन है यहां अकाल मृत्यु प्राप्त आत्माओं का होता है श्राद्ध व पिंडदान। इस पर्वत को प्रेतशिला के अलावा प्रेत पर्वत, प्रेत कला एवं प्रेत गिरी भी कहा जाता है। प्रेत शिला पहाड़ी की चोटी पर एक चट्टान है जिस पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति बनी है श्रद्धालुओं द्वारा पहाड़ी की चोटी पर स्थित चट्टान की परिक्रमा करके उस पर सत्तू से बना पिंड उड़ाया जाता है। प्रेस शीला पर सत्तू से पिंडदान की पुरानी परंपरा है। इस चट्टान के चारों तरफ 5 से 9 बार परिक्रमा करके उस पर सत्तू बना पिंड उड़ाया जाता है प्रेत शिला पर पिंडदान की पुरानी परंपरा है। इस चट्टान के चारों तरफ पांच से नौ बार परिक्रमा करने से आकाल मृत्यु में मरे योनि को मुक्ति मिलती है।
प्रेतशिला के नीचे है ब्रह्म कुंड:-
प्रेस शिला के मूल भाग यानी पर्वत के नीचे ही ब्रह्म कुंड में स्नान तर्पण के बाद श्राद्ध का विधान है जिसके संबंध में कहा जाता है कि इसका प्रथम संस्कार ब्रह्मा जी द्वारा किया गया था इस शिला पर यमराज का मंदिर, श्री राम दरबार देवालय के साथ श्राद्ध कर्म संपन्न करने के लिए दो कक्ष बने हुए हैं इससे “मोक्ष की भूमि “कहा जाता है।
गया की रहस्य मयी पहाड़ी : –
गरुड़ पुराण के अनुसार पूर्वज प्रेत शिला में मौजूद दरारों से पिंडदान लेने के लिए गया धाम जाते हैं जिसके बाद में आत्मा की दुनिया में लौट आते हैं बहुत से लोग मानते हैं की आत्माएं एक ग्रह से दूसरे ग्रह पर जाने के दौरान जमीन में चट्टानों से गुजरती है इन चट्टानों पर सूर्य, विष्णु, महिषासुर मर्दिनी ,दुर्गा शिव, पार्वती और अन्य ब्राह्मण संप्रदायों को यहां उप संगखाओं का केंद्र बिंदु माना जाता है।
इस पत्थर के बीच से आती जाती है प्रेत लोक से आत्माएं:-
आत्मा एवं प्रेत आत्माओं के किस्से बहुत ही रहस्यमय होती है। गरुण पुराण के अनुसार श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों की आत्माएं खुद धरती पर आती हैं और अपने परिवार के लोगों को किसी न किसी माध्यम से अपने होने का एहसास कराती है रहस्य और रोमांच से भरपूर ऐसी ही जगह गया है। यह स्थान अपने आप में विचित्र है कहा जाता है कि श्राद्ध पक्ष में यहां पितरों का आगमन होता है और पिंड ग्रहण करके परलोक वापस चले जाते हैं प्रेत शिला के पास के पत्थरों में विशेष प्रकार की दरारें और छिद्र हैं उनके बारे में कहा जाता है इन पत्थरों के उस पार रहस्य और रोमांच की ऐसी दुनिया है जो लोक और परलोक के बीच एक कड़ी का काम करती है इन दरारों के बारे में कहा जाता है कि उनसे होकर प्रेत आत्माएं आती और अपने परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान को ग्रहण कर वापस चली जाती है।
कहते हैं कि जब लोग पिंडदान करने यहां पहुंचते हैं तो उनके साथ उनके पूर्वजों की आत्माएं भी यहां चली आती है। सूर्यास्त के बाद यह आत्माएं विशेष प्रकार की ध्वनि छाया या फिर किसी और प्रकार से अपने होने का एहसास कराती है यह बातें यहां आस्था से जुड़ी बातों पर आधारित हैं इन्हें झूठ लाया भी नहीं जा सकता है और ना ही सर्वशक्ति माना जा सकता है ।
भगवान राम ने भी यहां किया था श्राद्ध:-
यहां पर भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध किया था इसका महत्व गरुड़ पुराण, महाभारत में है प्राचीन काल से मान्यता के मुताबिक यहां 360 वेदियां थी। अब मात्र यहां 48 बेदियां बची हुई है। फल्गु नदी और अक्षयवट पर पिंडदान दान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त प्रेतशिला, सीता कुंड नागकुंड, पांडुशिला, मंगला गौरी, रामशिला काकवलि में भी पिंडदान जरूरी है। पर्वत के ठीक ऊपर 975 फीट की ऊंचाई पर प्रेत शिला नाम की वेदी है इसी वेदी पर पिंडदान किया जाता है। वायु पुराण के अनुसार प्रेत योनि में आत्मा को भटकने से रोकने के लिए प्रेत शिला वेदी पर पिंडदान। आवश्य है।
पूर्वजों तक पहुंचता है पिंडदान ?
वायु पुराण और गरुड़ पुराण के अनुसार प्रेतशिला में किया गया पिंडदान सीधे स्वर्ग लोक तक पहुंचता है पूर्वजों को सीधे प्राप्त होता है। अकाल मृत्यु को प्राप्त जातकों को इसका फल सीधे पहुंचता है और मृत्यु के वाद जातकों को सीधे प्रेत योनि से मुक्ति दिला देता है यहां सत्तू से पिंडदान किया जाता है और सत्तू चढ़ाने से अकाल मृत्यु को प्राप्त जातक सीधे मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं प्रेत शिला के नीचे ब्रह्म कुंड है जहां स्नान के बाद लोग तर्पण करते हैं।
(श्रीमद्भागवत महापुराण, श्री वायु पुराण, श्री गरुण पुराण और श्री महाभारत से संकलित)।