Friday, July 5, 2024
साहित्य जगत

दरवाज़ा

अचानक सन्न रह गया

बड़े मकान का छोटा दरवाजा
यह सुनकर कि अशुभ है उसका बोलना।
जब कभी वह अड़ जाता है
तो धकिया दिया जाता है
उनके द्वारा जिसकी रक्षा के लिए
बन्द रखता है अपने दोनों ओठ
प्रहरी पर यह आघात बुरा है।
लाखों-करोड़ों की लागत से बने
मज़दूरों से पसीने से बने गारे से जुड़ी
दीवारों के बीच वह अकेला खड़ा है
आने-जाने देता है सभी को बेरोक-टोक
रोकता नहीं किसी के प्रवेश को
अपने दिल में चाहे जैसे हों
मोटे-पतले, लम्बे-बौने चरित्रवान- चरित्रहीन
पैमाना नहीं बदलता अनंतकाल का
अनुभवों से सिक्त यह दरवाजा वृद्ध है।
इसे पता है अपना दायित्त्व
चुपचाप प्रवेश संग आशीष देता है
धक्का खाकर भी खुल जाता है
बताता रहता है जीने की कला
अपनों-परायों के बीच।

भूपेश प्रताप सिंह
पट्टी, प्रतापगढ़ , उ. प्र.
मौलिक, स्वरचित