Friday, July 5, 2024
साहित्य जगत

बनाता हूं रेत के टीलों से मेहराब….

बनाता हूं रेत के टीलों से मेहराब
हवा का रूख चलता उलट देखकर,
न जाने हवा भी क्यूं जलती है हमसे
मिटा देती है सब अपना रुख पलटकर।

ऐसा नहीं कि कंक्रीट का पता नहीं
मगर वह पिघलता नहीं आसूं देखकर,
सीखा नहीं मुश्किल थपेड़ों को सहना
चटक जाता है वह तपीस में पड़कर।

वह हस्ती क्या जो चल नहीं पाए
अंगदी कदमों को कस्तियों में रखकर
हौसले को अपने दे नहीं सके ताकत
वजूद नहीं हमारा,भागे पीठ दिखाकर।

सीखा नहीं मोड़ लेना राह तिमिर के आगे
संघर्षों को अपनाया है आगे बढ़कर,
हवा का रूख तो क्या आंधियों से यूं
लड़ लेते हैं आमने सामने भी डटकर।

पछताएगा रूख भी हवा का एकदिन
अदम्य साहस और हौसले को देखकर,
खड़ा करते रहेंगे हिम्मत का हिमालय,
मोड़ लेगा रूख तब हमारी जिद्द देखकर।

गोपाल जी मिश्रा

सिद्धार्थनगर(उत्तर प्रदेश)