Monday, July 1, 2024
साहित्य जगत

चुप्पी

चुप्पी केवल चुप्पी नहीं होती
चलता रहता है निरन्तर -अंतर्द्वंद्व
उठते रहते हैं ,असंख्य प्रश्न और उत्तर
उस चुप्पी के पीछे-एक क्रांति छुपी होती है-
जैसे कि राख के भीतर की आग
बात का बतंगड़ ना बन जाए
किसी भयावह बवंडर का रूप ना धर ले-
इस लिए साध लेता है-इंसान चुप्पी!
चुप्पी का अर्थ यह कभी नहीं होता
की आदमी के पास कुछ भी नहीं कहने को –
वाह्य रूप से चुप्पी साधे इंसान के अंतर्मन में चलता रहता है-
अनेकों- अनेकों युद्ध!
वह लड़ता रहता ,भीतर ही भीतर
अपने ही प्रश्नों के उत्तर-निरूत्तर
अवस्था से भिड़ता -उबरता
आंतरिक कोलाहल को नापता -तोलता
तर्कों-कुतर्कों और सुतर्कों के मध्य
समांजस्य स्थापित करने की कोशिश में ,
स्वं से विजित और पराजित होता
अंतस के हृदय अखाड़े पर-
कुविचारों -सुविचारों के घात- प्रतिघात
को सहन करता-
विचारों के अंतर्द्वंद्व के जय- पराजय का अद्वैत मूक दर्शक-
जिनका अवलोकन वाह्य चर्मचक्षुएं नहीं कर सकती –
यह तो मात्र उन्हें ही दृष्टिगोचर हो सकता है-
जो मौन युद्ध का भुक्तभोगी हो अथवा अतंस युद्ध का भागीदार –
कैसे समझ पाएगा कोई वाचाल !
मूक द्वंद्व को?
अंतर्दृग के अभाव में-
अंतस का अंतस से, विचारों का, हृदय का,आत्मद्वंद और अभ्यांतर के कोलाहल को-
इस लिए चुप्पी केवल चुप्पी नहीं होती,
एक क्रांति होती है भीतर ही भीतर
जिसमें चलता रहता है विचारों का अंतर्द्वंद्व।।

आर्यावर्ती सरोज “आर्या”
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)