Monday, July 1, 2024
साहित्य जगत

नहीं रहा ख़ुदा से आस

नहीं रहा ख़ुदा से आस,
बुझ रहे जलते चिराग़।
कब कौन दीपक बुझ जाए,
नहीं रहा वक्त पर विश्वास।

एक एक कर उजड़ रहा है,
मानव जगत का स्तंभ।
कब क्या कसूर हुआ,
घुट घुट कर झेल रहें हैं दंश।

आंखों के तारे ओझल हो रहे,
मिट रहा जीवन का व्यास।
पल पखवारे में घट रही घटना,
जनमानस हो रहा है हताश।

चल रहीं क्षीण हवा ये कैसी,
कब ये करवट बदल रहा।
खुशियों के आंगन अब,
मातम में मंजर बदल रहा।

टूट हैै रहा मन अब सबका,
प्रलय जगत का देख रहे हैं।
किसको कौन ढाढस बद्धाये,
कुटुंब को जग से खो रहे हैं।

माताओं के कांधे से उठ रही,
जवां बेटों की लाश।
कब बदलेगा वक्त त्रस्त ये,
कब सामान्य होगा ये हालात।

नहीं रहा ख़ुदा से आस,
बुझ रहे जलते चिराग़।
कब कौन दीपक बुझ जाए,
नहीं रहा वक्त पर विश्वास।

आशीष प्रताप साहनी
भीवा पार भानपुर बस्ती
उत्तर प्रदेश 272194
8652759126