Tuesday, July 2, 2024
विचार/लेख

श्री कृष्ण और भगवद्गीता

विचार/लेख। मूलतः भगवद्गीता संस्कृत महाकाव्य है जो महाभारत की घटना रुप में उपलब्ध है। महाभारत में वर्तमान कलियुग तक की घटनाओं का विवरण मिलता है।इसी युग के आरंभ में आज से लगभग ५००० वर्ष पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र तथा परम भक्त अर्जुन को भगवद् गीता सुनाई थी। उनकी यह वार्ता,जो मानव इतिहास की सबसे महान दार्शनिक तथा धार्मिक वार्ता है,उस महायुद्ध के शुभारंभ से पूर्व हुई,जो धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों तथा उनके चचेरे भाई पाण्डवों के मध्य होने वाला था।
कुरुवंश में जन्मे धृतराष्ट्र और पाण्डु भाई भाई थे और राजा भरत के वंशज थे, जिनके नाम पर ही महाभारत नाम पड़ा।बड़ा भाई धृतराष्ट्र जन्मान्ध था इस लिए राजसिंहासन उसे न मिलकर उसके छोटे भाई पाण्डु को मिला। पाण्डु की मृत्यु बहुत कम आयु में ही हो गई, अतः उसके पांच पुत्र-युधिष्ठिर,भीम अर्जुन, नकुल तथा सहदेव धृतराष्ट्र के संरक्षण में रखे गए और उसे कुछ काल के लिए राजा बना दिया गया था। इस लिए धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्र साथ साथ एक ही राजमहल में बड़े हुए। दोनों को ही गुरु द्रोण द्वारा सैन्यकला का प्रशिक्षण दिया गया और पूज्य भीष्म पितामह उनका मार्गदर्शन करते रहते थे। परन्तु धृतराष्ट्र का सबसे बड़ा पुत्र दुर्योधन पाण्डवों से ईर्ष्या और विद्वेष की भावना रखता था और और दुर्बल हृदय,जन्मान्ध धृतराष्ट्र पुत्र मोह और राज्य लालसा में पाण्डु पुत्रों के बजाय अपने पुत्र दुर्योधन को राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। इस लिए दुर्योधन ने धृतराष्ट्र के परामर्श से पाण्डु पुत्रों को जान से मारने का षड्यंत्र रचा। पांचों पाण्डव अपने चाचा विदुर तथा ममेरे भाई कृष्ण के संरक्षण में रहकर अपने प्राणों की रक्षा करते रहे।
कृष्ण कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, अपितु साक्षात परम ईश्वर हैं जिन्होंने विशेष उद्देश्य के लिए पृथ्वी पर जन्म लिया था और अब एक राजकुमार की भूमिका अदा कर रहे थे।वे पाण्डु की पत्नी कुंती (पृथा) के भतीजे थे। इस तरह सम्बन्धी के रूप में तथा धर्म के पालक होने के कारण वे पाण्डु पुत्रों का पक्ष लेते रहे और उनकी रक्षा करते रहे।
चतुर दुर्योधन अनेक छल कपट के मार्ग अपनाते हुए पाण्डु पुत्रों को समाप्त करने के प्रयास करता रहा। किन्तु अन्ततः दुर्योधन ने पाण्डवों को जुआ खेलने के लिए ललकारा।उस निर्णायक स्पर्धा में पाण्डवों की पराजय होने पर दुर्योधन तथा उसके भाईयों ने पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी पर अधिकार प्राप्त कर लिया और फिर उसे राजाओं तथा राजकुमारों की सभा के मध्य निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। कृष्ण के दैवी हस्तक्षेप से उसकी रक्षा हो सकी, किन्तु जुए में हार जाने के कारण पाण्डवों को अपने राज्य से हाथ धोना पड़ा और तेरह वर्ष तक वनवास के लिए जाना पड़ा।
वनवास से लौट कर पाण्डवों ने दुर्योधन से अपना राज्य मांगा, किन्तु उसने देने से इंकार कर दिया। पांचों पाण्डवों ने अपना पूरा राज्य न मांगकर केवल पांच गांवों की मांग रखी, किन्तु दुर्योधन सुई की नोक भर भी भूमि देने के लिए तैयार नहीं हुआ। अभी तक तो पाण्डव सहनशील बने रहे, लेकिन अब उनके लिए युद्ध करना अवश्यंभावी हो गया।विश्व भर के राजकुमारों में से कुछ दुर्योधन के पक्ष में थे, तो कुछ पाण्डवों के पक्ष में।उस समय कृष्ण पाण्डु पुत्रों के संदेश वाहक बनकर शान्ति की याचना के लिए धृतराष्ट्र के दरबार में गये। मगर उनकी याचना अस्वीकृत हो गई, तो युद्ध निश्चित था। अत्यंत सच्चरित्र पांचों पाण्डवों ने कृष्ण के भगवान स्वरूप को पहचान लिया था, किन्तु धृतराष्ट्र के दुष्ट पुत्र उन्हें नहीं समझ पाए थे। फिर भी कृष्ण ने विपक्षियों की इच्छानुसार ही युद्ध में सम्मिलित होने का प्रस्ताव रखा। ईश्वर के रूप में वे युद्ध नहीं कर सकते थे, किन्तु जो उनकी सेना का उपयोग करना चाहे ,कर सकता था। राजनीति में कुशल दुर्योधन ने कृष्ण की सेना झपट ली, जबकि पाण्डवों ने कृष्ण को लिया।
इस प्रकार कृष्ण अर्जुन के सारथी बने उन्होंने उस सुप्रसिद्ध धनुर्धर का रथ हांकना स्वीकार किया।इसी बिन्दु से भगवद्गीता का शुभारम्भ होता है–दोनो ओर सेनाएं युद्ध के लिए खड़ी हैं और धृतराष्ट्र अपने सचिव संजय से पूछ रहा है कि उन सेनाओं ने क्या किया? इस तरह सारी पृष्ठभूमि तैयार है।
भगवद्गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से हुआ।वह भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे महारथियों की सहायता से अपने पुत्रों की विजय के प्रति आशावान था।उसे आशा थी कि विजय उसके पक्ष में होगी। लेकिन युद्ध क्षेत्र के दृश्य का वर्णन करने के बाद संजय ने राजा से कहा “आप अपनी विजय की बात सोच रहे हैं, लेकिन मेरा मत है कि जहां कृष्ण और अर्जुन उपस्थित हैं, वहीं सम्पूर्ण श्री होगी।” उसने प्रत्यक्ष पुष्टि की कि धृतराष्ट्र को अपने पक्ष की विजय की आशा नहीं रखनी चाहिए। विजय तो अर्जुन के पक्ष की निश्चित है, क्यों कि उसमें कृष्ण हैं। श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन के सारथी का पद स्वीकार करना एक एश्वर्य का प्रदर्शन था। कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और इनमें से वैराग्य एक है। ऐसे वैराग्य के भी अनेक उदाहरण प्राप्त हैं, क्यों कि कृष्ण वैराग्य के भी ईश्वर हैं।
ऐसे अनेक अल्पज्ञ व्यक्ति हैं जो भगवद्गीता को युद्ध स्थल में दो मित्रों की वार्ता के रुप में ग्रहण करते हैं। लेकिन इससे ऐसा ग्रंथ कभी शास्त्र नहीं बन सकता। कुछ लोग विरोध कर सकते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए उकसाया,जो अनैतिक है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भगवद्गीता नीति का परम आदेश है।यह नीति विषयक आदेश नवें अध्याय के ३४वें श्लोक में है—–मन्मना भव मद्भक्:
मनुष्य को कृष्ण का भक्त बनना चाहिए और सारे धर्मों का सार है__कृष्ण की शरणागति (सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज)। भगवद्गीता का आदेश धर्म तथा नीति की परम विधि है। भगवद्गीता का अंतिम आदेश समस्त नीतियों तथा धर्मों का सार वचन है__कृष्ण की शरण ग्रहण करो या कृष्ण को आत्मसमर्पण करो।यह १८वें अध्याय का मत है।
भगवद्गीता में पांच प्रमुख विषयों की व्याख्या की गई है—भगवान, भौतिक प्रकृति,जीव,शाश्वतकाल तथा सभी प्रकार के कर्म। सब-कुछ भगवान कृष्ण पर आश्रित है।परम सत्य की सभी धारणाएं—निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा अन्य दिव्य अनुभूतियां-भगवान के ज्ञान की कोटि में सन्निहित हैं। यद्यपि उपर से भगवान,जीव, प्रकृति तथा काल भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन ब्रह्म से कुछ भी भिन्न नहीं है। लेकिन ब्रह्म सदैव समस्त वस्तुओं से भिन्न है। भगवान चैतन्य का दर्शन है “अचिन्त्यभेदाभेद”।यह दर्शन पद्धति परम सत्य के पूर्ण ज्ञान से युक्त है।
जीव अपने मूल रूप में शुद्ध आत्मा है।वह परमात्मा का एक परमाणु मात्र है। इस प्रकार भगवान कृष्ण की उपमा सूर्य से दी सकती है और जीवों की सूर्य प्रकाश से। चूंकि सारे जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति है,अत एवं उनका संसर्ग भौतिक शक्ति (अपरा)या आध्यात्मिक शक्ति (परा) से होता है।दूसरे शब्दों में,जीव भगवान की दो शक्तियों के मध्य स्थित है और चूंकि भगवान का सम्बन्ध भगवान की पराशक्ति से है,अतएव उनमें किंचित स्वतंत्रता रहती है।इस स्वतंत्रता के सदुपयोग से ही वह कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत आता है।
भगवद्गीता में योग की समस्त पद्धतियों का–कर्मयोग, ज्ञान योग तथा भक्ति योग का वर्णन हुआ है। श्री कृष्ण इन समस्त योगों के स्वामी हैं। अर्जुन भाग्यशाली था जो कृष्ण को प्रत्यक्षतः समझ सका।उसी प्रकार व्यास देव की कृपा से संजय भी कृष्ण को साक्षात् सुनने में समर्थ हो सका।वस्तुत: कृष्ण से प्रत्यक्षतः सुनने एवं व्यास जैसे गुरु के माध्यम से प्रत्यक्ष सुनने में कोई अन्तर नहीं है। गुरु भी व्यास देव का प्रतिनिधि होता है।अतएव वैदिक पद्धति के अनुसार गुरु के जन्मदिवस पर शिष्य गण व्यास पूजा नामक उत्सव मनाते हैं। कृष्ण तो जगतगुरु हैं।
आइए कृष्ण जन्मोत्सव धूमधाम से मनाते हैं।
++**हरे कृष्ण,हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण,हरे हरे।हरे राम हरे राम, राम राम,हरे हरे। कृष्णा कृष्णा, राधे राधे,हरे राधे ,हरे हरे।**++

रीता पाण्डेय
रंजीत कालोनी मालवीय रोड बस्ती।
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