कोरोना से नहीं निजी अस्पतालों के बड़े-बड़े बिलों से डर लगता है साहब
कोरोना महामारी ने भारतीय चिकित्सा क्षेत्र की विसंगतियों एवं दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों की पोल खोल दी है। भले केन्द्र सरकार की जागरूकता एवं जिजीविषा ने जनजीवन में आशा का संचार किया हो, लेकिन इस महाव्याधि से लड़ने में चिकित्सा सुविधा नाकाफी है, धन कमाने एवं लूटखसोट का जरिया बन गयी है। कोरोना के इलाज के लिए निजी अस्पताल में एक दिन का खर्च जहां एक लाख रुपए तक है, वहीं सरकारी अस्पताल में एक दिन भी काटना मुश्किल है। राजधानी दिल्ली सहित महानगरों, नगरों एवं गांवों में चिकित्सा की चरमराई स्थितियों ने निराश किया है। चिकित्सक, अस्पताल, दवाई, संसाधन इत्यादि से जुड़ी कमियां एक-एक कर सामने आ रही हैं। इन त्रासद स्थितियों ने कोरोना पीड़ितों को दोहरे घाव दिये हैं, निराश किया है, उत्पीड़ित किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी इन जटिल होती स्थितियों को गंभीरता से लिया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा है कि उन निजी अस्पतालों की पहचान करे जो कोविड-19 के मरीजों का मुफ्त या कम खर्च में इलाज कर सकते हैं। प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे, न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना और न्यायमूर्ति ऋषिकेश राय की पीठ ने वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिये मामले की सुनवाई करते हुए टिप्पणी की कि ऐसे निजी अस्पताल हैं जिन्हें मुफ्त या बेहद कम दामों पर जमीन आवंटित की गयी है, उन्हें कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों का निःशुल्क इलाज करना चाहिए। न्यायालय एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें देश के निजी अस्पतालों में कोविड-19 के मरीजों के इलाज के खर्च को नियंत्रित करने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया है। याचिका में कहा गया है कि सरकार को निजी अस्पतालों जिन्हें रियायती दर पर सार्वजनिक भूमि आवंटित की गयी है या जो धर्मार्थ अस्पतालों की श्रेणी में आते हैं, उन्हें कोविड-19 के मरीजों का जनसेवा के रूप में या बगैर किसी नफे नुकसान के आधार पर इलाज करने का आदेश देना चाहिए।
इस याचिका में ऐसे निजी अस्पतालों में कोविड-19 से संक्रमित गरीब, अभावग्रस्त और बगैर किसी स्वास्थ्य बीमा वाले मरीजों तथा सरकार की आयुष्मान भारत जैसी योजना के दायरे में नहीं आने वाले मरीजों के इलाज का खर्च सरकार को वहन करने का भी निर्देश देने का अनुरोध किया गया है। याचिका के अनुसार आपदा प्रबंधन कानून के तहत प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए केंद्र ने जिस तरह निजी अस्पतालों में कोविड-19 के संक्रमित मरीजों की जांच की कीमत को नियंत्रित किया है, ठीक उसी तरह उसे इस महामारी से प्रभावित मरीजों के उपचार पर होने वाले खर्च को भी नियंत्रित करना चाहिए।
कोरोना इलाज की अपेक्षाओं को देखते हुए निजी अस्पतालों को कोरोना के इलाज की मंजूरी दी गई है लेकिन यहां इलाज का खर्च उठा पाना सबके बस की बात नहीं हैं। संजय नगराल ने ट्वीट किया कि एक निजी अस्पताल ने कोरोना से संक्रमित रोगी के इलाज का 12 लाख रुपये का बिल बनाया। इसे देख बीमा कंपनियां सकते में हैं। आखिरकार इस वायरस के लिए कितने इंश्योरेंस की जरूरत होगी? प्रश्न यह भी है कि इस महासंकट के दौर में कोरोना इलाज के नाम पर निजी अस्पतालों को लूटखसोंट करने की छूट कैसे दी जा सकती है? कोरोना संक्रमण के दौर में जब हर कोई किसी की सहायता को तत्पर दिखता है, तब निजी अस्पतालों द्वारा मनमाना शुल्क वसूलने के साथ ही मरीज ही नहीं, तीमरदार के साथ भी बदसलूकी किए जाने की शिकायतें अमानवीय एवं दुर्भाग्यपूर्ण ही कही जाएंगी। योगी एवं उनकी सरकार को साधुवाद कि उन्होंने निजी अस्पतालों की लूट-खसोट की खबरों पर कान दिए और तुरत-फरत जांच बैठा दी। उम्मीद की जानी चाहिए कि जांच में दोषी पाए जाने वाली निजी अस्पतालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। आपदा की इस घड़ी में मरीजों के साथ मनमाने शुल्क की वसूली कतई उचित नहीं बल्कि इसे दुस्साहस ही कहा जाएगा। विडम्बनापूर्ण है कि कोरोना को लेकर शुरू से ही सख्त रूख अपनाने वाली योगी सरकार के फरमानों को भी निजी अस्पताल ने धता बता दिया। उचित होगा लखनऊ की नजीर मानकर देश के सभी निजी अस्पतालों के खिलाफ जांच का सघन अभियान चलाया जाए और ऐसी व्यवस्था की जाये कि जब तक कोरोना महामारी का प्रकोप समाप्त न हो जाये, ये निजी अस्पताल निःशुल्क या कम दरों पर ही इलाज करें।
कोरोना काल में देश की राजधानी की हालत खराब है। दिल्ली के सभी प्राइवेट अस्पतालों में कोरोना बेड्स की मारामारी मची है। गंगाराम, मैक्स, अपोलो, मेदांता, ये सभी अस्पताल लगभग पूरी तरह से भर चुके हैं। बेड्स खत्म होने की सूरत में वेटिंग लिस्ट बना दी गई है, मतलब बेड खाली होने पर ही बारी आएगी, इसमें भी भारी भ्रष्टाचार व्याप्त है। यहां भी मनमानी कीमत वसूलने के बावजूद कोई संतोषजनक इलाज नहीं है। ये हालात तब हैं, जब प्राइवेट अस्पताल में एक दिन का खर्च नॉर्मल वॉर्ड में 25 से 30 हजार रोजाना से लेकर आईसीयू में 1 लाख रोजाना तक का है। वहीं दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में बेड तो हैं लेकिन व्यवस्था छुट्टी पर है। पहले भर्ती करने में आनाकानी, फिर भर्ती करने के बाद सिस्टम फेल। देश के सबसे बड़े सरकारी कोविड-अस्पताल एलएनजेपी के बाहर भी लोग लाचार नजर आ रहे हैं।
कोरोना महामारी का प्रकोप भारत में तेजी से पसर रहा है, हर दिन नब्बे हजार से अधिक रोगी सामने आ रहे हैं। प्रारंभिक दौर में जब एक-दो हजार रोगी सामने आ रहे थे, तब हमारे चिकित्साकर्मियों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए कोरोना पीड़िता का इलाज किया था, अनेक मनोवैज्ञानिक उपक्रम भी हुए, लेकिन अब यह महामारी विकराल रूप धारण कर रही है, तब सरकार भी, चिकित्सा सेवाएं एवं मनोवैज्ञानिक उपचार निस्तेज क्यों हो रहे हैं? प्रश्न केन्द्र सरकार एवं केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री की कोरोना मुक्ति की योजनाओं को लेकर नहीं है। प्रश्न है भारत की चिकित्सा प्रक्रिया की खामियों का, निजी अस्पतालों के महंगे इलाज का, इस अंधेरे का अब तीव्रता से अहसास हो रहा है।
संकट के बढ़ते इस समय में निजी अस्पतालों में आज के भगवान रूपी डॉक्टर एवं अस्पताल मालिक मात्र अपने पेशे के दौरान वसूली व लूटपाट ही करते हुए नजर आए तो यह एक तरह की अराजकता एवं अमानवीयता की पराकाष्ठा है। निजी अस्पतालों एवं उनके डॉक्टरों पर धन वसूलने का नशा इस कदर हावी है कि वह उन्हें सच्चा सेवक के स्थान पर शैतान बना रहा है। केन्द्र सरकार कोरोना पीड़ित को बेहतर तरीके से इस असाध्य बीमारी की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिये प्रतिबद्ध है। निजी अस्पतालों पर कार्रवाई करना बेहद जरूरी है क्योंकि कोरोना के समय में अनेक अस्पतालों ने चिकित्सा-सेवा को मखौल बना दिया है।
एक लोकतांत्रिक देश में लोगों के इलाज एवं निजी अस्पतालों पर अनुशासन स्थापित करने की जिम्मेदारी सरकार की है और वह इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। सरकारी अस्पतालों की पर्याप्त भ्रष्टाचारमुक्त एवं प्रभावी सुविधाएं स्थापित हों, उससे पहले निजी अस्पतालों पर नकेल कसना जरूरी है। वैसे सरकारी इलाज की सबसे अच्छी व्यवस्था ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया में और हांगकांग की मानी जाती है। ऑस्ट्रेलिया ने आइएएस की तरह हेल्थकेयर का अलग कैडर बना रखा है। वहां अमीर व्यक्ति भी बीमार होता है तो सबसे पहले सरकारी अस्पताल में जाता है न कि प्राइवेट अस्पताल में। इसके विपरीत भारत आबादी के हिसाब से अस्पतालों में बेड बढ़ाने एवं चिकित्सा सेवाओं को प्रभावी बनाने में बुरी तरह विफल रहा। अब सरकार का ध्यान इस ओर गया है, जब तक उसके परिणाम आये, तब तक कोरोना महामारी के मोर्चे पर सरकारी और निजी क्षेत्र की जुगलबंदी ही देश में कारगर इलाज कर सकती है।