Sunday, April 21, 2024
व्रत/त्यौहार

भगवती षष्ठी की महिमा

मूल प्रकृति के छठे अंश से जो देवी आविर्भूत हैं वे भगवती षष्ठी कही गई हैं।ये बालकों की अधिष्ठात्री देवी हैं। इन्हें विष्णु माया और बालदा भी कहा जाता है। ये मातृकाओं में देवसेना नाम से प्रसिद्ध हैं। उत्तम व्रत का पालन करने वाली तथा साध्वी ये भगवती षष्ठी स्वामी कार्तिकेय की भार्या हैं और उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। ये बालकों को आयु प्रदान करने वाली, उनका भरण- पोषण करने वाली तथा उनकी रक्षा करने वाली हैं। ये सिद्धी योगिनी देवी अपने योग के प्रभाव से शिशुओं के पास निरंतर विराजमान रहती हैं।

*देवी षष्ठी का इतिहास एवं पूजन विधान-*

स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत नाम के एक राजा थे। योगिराज प्रियव्रत विवाह नहीं करना चाहते थे।वे सदा तपस्या में संलग्न रहते थे , किन्तु ब्रम्हा जी की आज्ञा तथा उनके प्रयत्न से उन्होंने विवाह कर तो लिया; परन्तु उनके संतानोत्पत्ति में विलंब होने लगा।
विवाह करने के अनंतर बहुत समय तक जब उन्हें पुत्र प्राप्ति नहीं हुई,तब महर्षि कश्यप ने उनसे पुत्रेष्टि यज्ञ कराया ।मुनि ने उनकी प्रिय भार्या मालिनी को यज्ञचरु प्रदान किया।उस चरु को ग्रहण कर लेने पर उन्हें शीघ्र ही गर्भ स्थित हो गया।वे देवी उस गर्भ को दिव्य बारह वर्षों तक धारण किये रहीं।
तत्पश्चात् स्वर्ण सदृश कान्तिवाले ,शरीर के समस्त अवयवों से संपन्न,मरे हुए तथा उलटी आंखों वाले पुत्र को जन्म दिया।
उसे देखकर सभी स्त्रियां तथा बान्धवों की पत्नियां रोने लगी और महान पुत्र शोक के कारण उसकी माता मूर्छित हो गईं।

उस बालक को लेकर राजा प्रियव्रत श्मशान गये और वहां निर्जन स्थान में पुत्र को अपने वक्ष से लगा कर रुदन करने लगे। राजा ने उस मृत बालक को नहीं छोड़ा। वे प्राण त्याग करने को तत्पर हो गये। अत्यंत दारुण पुत्र शोक के कारण राजा का ज्ञान योग विस्मृत हो गया।

इसी बीच वहां उन्होंने शुद्ध स्फटिक मणि के समान प्रकाशमान बहुमूल्य रत्नों से निर्मित,तेज से निरंतर देदीप्यमान, रेशमी वस्त्र से सुशोभित, अनेक प्रकार के अद्भुत चित्रों से विभूषित और पुष्प तथा मालाओं से सुसज्जित एक विमान देखा। साथ ही उन्होंने उस विमान में कमनीय, मनोहर, श्वेत चंपा के वर्ण के समान आभावाली,सदा स्थायी रहने वाले तारुण्य से सम्पन्न,मंद -मंद मुस्कान युक्त प्रसन्न मुख मण्डल वाली, रत्न निर्मित आभूषणों से अलंकृत, करुणा एवं कृपा की साक्षात् मूर्ति, योग सिद्ध और भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए परम आतुर प्रतीत होने वाली देवी को भी देखा।

उन देवी को समक्ष देखकर राजा ने उस बालक को भूमि पर रखकर परम आदर पूर्वक उनका स्तवन तथा पूजन किया। तत्पश्चात् राजा प्रियव्रत प्रसन्नता को प्राप्त, ग्रीष्म कालीन सूर्य के समान प्रभावशाली, अपने तेज से देदीप्यमान तथा शांत स्वभाव वाली उन कार्तिकेय प्रिया (भगवती षष्ठी) -से पूछने लगे –

*राजा बोले -* हे सुशोभने! हे कान्ते! हे सुव्रते! हे वारारोहे! समस्त स्त्रियों में परम् धन्य तथा आदरणीय तुम कौन हो, किसकी भार्या हो और किसकी पुत्री हो?

प्रिय व्रत की बात सुनकर जगत का कल्याण करने में दक्ष तथा देवताओं के लिए संग्राम करने वाली भगवती देवसेना उनसे कहने लगीं। वे देवी प्राचीन काल में दैत्यों के द्वारा पीड़ित देवताओं की सेना बनी थीं। उन्होंने उन्हें विजय प्रदान किया था, इस लिए वे देवसेना नाम से विख्यात हैं।

*श्री देवसेना बोली -* हे राजन! मैं ब्रम्हा जी की मानस कन्या हूं।सब पर शासन करने वाली मैं “देवसेना” नाम से विख्यात हूं। विधाता ने अपने मन से मेरी सृष्टि कर के स्वामी कार्तिकेय को सौंप दिया।मातृकाओं में विख्यात मैं स्वामी कार्तिकेय की भार्या हूं। भगवती परा -प्रकृतिका षष्ठांश होने के कारण मैं विश्व में “षष्ठी” इस नाम से प्रसिद्ध हूं। मैं संतानहीन को संतान, युवक को अभीष्ट पत्नी, युवती अभीष्ट पति ,दरिद्रों को धन, शुभ कर्म करने वालों शुभ फल तथा भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाली हूं।

हे राजन! सुख,दु:ख, भय,शोक, हर्ष, मंगल, सम्पत्ति और विपत्ति – यह सब कर्मानुसार ही प्राप्त होता है। अपने कर्म से मनुष्य अनेक संतानों की प्राप्ति करता है। कर्म से ही संतानहीन होता है, कर्म से ही उसे मरा हुआ संतान उत्पन्न होता है और कर्म से ही संतान दीर्घजीवी होता है। मनुष्य कर्म से ही गुणी, कर्म से ही अंगहीन,कर्म से ही सुलक्ष्णा पत्नी का पति अथवा सुलक्ष्ण और गुणवान पति प्राप्त करते हैं। कर्म से ही मनुष्य रूपवान और गुणवान होता है। अत: हे राजन! कर्म सबसे बलवान है- ऐसा श्रुति में कहा गया है।
ऐसा कहकर उस भगवती षष्ठी ने बालक को लेकर अपने महाज्ञान के द्वारा क्षण मात्र में ही उसे जीवित कर दिया।अब राजा प्रियव्रत स्वर्ण की प्रभा के समान कान्ति से सम्पन्न तथा मुस्कान युक्त उस बालक को देखने लगे।उसी समय वे भगवती देवसेना बालक को देख रहे राजा से कहकर उस बालक को लेकर के आकाश में जाने को उद्धत हो गईं ।

(यह देखकर) शुष्क कण्ठ,ओष्ठ तथा तालुवाले वे राजा उन भगवती की स्तुति करने लगे,तब राजा के स्त्रोत से वे देवी षष्ठी अत्यंत प्रसन्न हो गयीं और उन राजा से कर्मनिर्मित वेदोक्त वचन कहने लगीं।

*देवी बोली -* तुम स्वयंभुव मनु के पुत्र हो और तीनों लोकों के राजा हो। तुम सर्वत्र मेरी पूजा कराकर स्वयं भी करो,तभी मैं तुम्हें कुल के कमल स्वरुप यह मनोहर पुत्र प्रदान करूंगी।यह सुव्रत नाम से विख्यात होगा,यह गुणी तथा विद्वान् होगा, इसे पूर्व जन्म की बातें स्मरण रहेंगी।यह योगिन्द्र होगा तथा भगवान नारायण की कला से सम्पन्न होगा, यह क्षत्रियों में श्रेष्ठ एवं सभी के द्वारा वंदनीय होगा तथा सौ अश्वमेध यज्ञ करने वाला।यह बालक लाखों मतवाले हाथियों के समान बल धारण करेगा तथा महान कल्याणकारी होगा। यह धनी, गुणवान विमल बुद्धि से परिपूर्ण अत्यंत विद्वान, विद्वानों को अति प्रिय और योगियों, तपस्वियों का सिद्धि स्वरूप, समस्त लोकों में यशस्वी तथा सभी को समस्त सम्पदाएं प्रदान करने वाला होगा।

ऐसा कहकर उस देवी ने वह बालक राजा को दे दिया। राजा प्रियव्रत ने भी पूजा की बातें स्वीकार कर लीं। तब भगवती भी उन्हें कल्याणकारी वर प्रदान कर स्वर्ग को प्रस्थान कर गयीं।
तब राजा प्रसन्न चित्त होकर मंत्रियों के साथ अपने राजमहल लौट आए। राज प्रसाद पहुंच कर पुत्र विषयक सरा वृतांत सभी को सुनाया। उसे सुनकर सभी नर नारी परम प्रसन्न हुए।

राजा ने पुत्र प्राप्ति के उपलक्ष्य में सर्वत्र मंगलोत्सव कराया। भगवती षष्ठी की पूजा की तथा ब्राह्मणों को धन प्रदान किया।

उसी समय से राजा प्रियव्रत प्रत्येक महीने में शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को भगवती षष्ठी का महोत्सव प्रयत्न पूर्वक सर्वत्र कराने लगे।

सूतिका गृह में,बालक के छठें दिन, इक्कीसवें दिन, बालकों से सम्बंधित किसी भी मांगलिक कार्यों में तथा शुभ अन्नप्राशन के अवसर पर वे भगवती की पूजा कराने लगे और स्वयं भी करने लगे, इस प्रकार उन्होंने सर्वत्र भगवती षष्ठी की पूजा का प्रचार कराया।

*भगवती षष्ठी की पूजा का विधान -* भगवान विष्णु ने नारद जी से कहा -हे नारद! भगवती षष्ठी के ध्यान, पूजा विधान तथा स्तोत्र सुनिये, इसे मैंने धर्म देव के मुख से सुना था इसका वर्णन साम वेद की कौथुमशाखा में मिलता है।
हे मुने! शालग्राम,कलश अथवा वट के मूल में अथवा दीवार पर पुत्तलिका बनाकर भगवती प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने वाली, शुद्ध स्वरूपिणी तथा दिव्य प्रभा से सम्पन्न षष्ठी देवी को प्रतिष्ठित कर के बुद्धिमान मनुष्य को उनकी पूजा करनी चाहिए।

उत्तम संतान प्रदान करने वाली, कल्याणदायिनी, दयास्वरूपिणी,जगत की सृष्टि करने वाली, श्वेत चंपा के पुष्प की आभा के समान वर्ण वाली, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत,परम पवित्र स्वरूपिणी तथा अति श्रेष्ठ परा भगवती देवसेना की मैं अराधना करता हूं।” विद्वान् मनुष्य को चाहिए कि इस विधि से ध्यान कर के ( हाथ में लिए हुए) पुष्प को अपने मस्तक से लगा कर उसे भगवती को अर्पण कर दें। पुनः ध्यान कर के मूल मंत्र उच्चारण पूर्वक पाद्य, अर्घ्य,आचमनीय, गंध, पुष्प,दीप, विविध प्रकार के नैवेद्य तथा ऋतु फल आदि उपचारों के द्वारा उत्तम व्रत में निरत रहने वाली साध्वी भगवती देवसेना की पूजा करनी चाहिए और उस मनुष्य को *” ऊं ह्रीं षष्ठीदेव्यै स्वाहा”* इस अष्टाक्षर महामंत्र का अपनी शक्ति के अनुसार विधि पूर्वक जप भी करना चाहिए। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर भक्ति पूर्वक स्तुति करके देवि को प्रणाम करना चाहिए। सन्तान उत्पन्न करने वाला यह फल सामवेद में वर्णित है। जो मनुष्य भगवती के अष्टाक्षर मंत्र का एक लाख जप करता है, वह निश्चित रूप से सुन्दर, गुणवान, और बुद्धिमान संतान को प्राप्त करता है- ऐसा ब्रम्हा जी ने कहा है।

*षष्ठी देवी का स्त्रोत-*

हे मुनि श्रेष्ठ! अब सम्पूर्ण शुभ कामनाओं को प्रदान करने वाले तथा वेदों में रहस्यमय रूप से प्रतिपादित स्त्रोत का श्रवण कीजिए।

देवी को नमस्कार है, महादेवी को नमस्कार है। भगवती सिद्धी एवं शान्ति को नमस्कार है।शुभा, देवसेना तथा देवी षष्ठी को बार- बार नमस्कार है। मूल प्रकृति के छठे अंश से अवतीर्ण, सृष्टि स्वरूपिणी तथा सिद्ध स्वरूपिणी भगवती को बार- बार नमस्कार है। माया तथा सिद्ध योगिनी षष्ठी देवी को बार- बार नमस्कार है। सारस्वरूपिणी ,शारदा तथा परादेवी को बार- बार नमस्कार है। बालकों की अधिष्ठात्री देवी को नमस्कार है। षष्ठी देवी को बार- बार नमस्कार है। कल्याण प्रदान करने वाली कल्याणस्वरूपिणी, सभी कर्मों के फल प्रदान करने वाली तथा अपने भक्तों को प्रत्यक्ष दर्शन देने वाली देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। सम्पूर्ण कार्यों में सभी के लिए पूज्यनीय तथा देवताओं की रक्षा करने वाली स्वामी कार्तिकेय की भार्या देवी षष्ठी को बार-बार नमस्कार है। शुद्धसत्वस्वरूपिणी मनुष्यों के लिए सदा वंदनीय तथा क्रोध- हिंसा से रहित षष्ठी देवी को बार-बार नमस्कार है। हे सुरेश्वरी! आप मुझे धन दीजिए, संतान प्रदान कीजिए,मान प्रदान कीजिए तथा विजय प्रदान कीजिए और हे महेश्वरी! मेरे शत्रुओं का संहार कर डालिए। मुझे धर्म दीजिए और कीर्ति दीजिए आप षष्ठी देवी को बार- बार नमस्कार है। हे सुपूजिते! भूमि दीजिए, प्रजा, दीजिए विद्या दीजिए, कल्याण और जय प्रदान कीजिए आप षष्ठी देवी को बार-बार नमस्कार है।

इस प्रकार भगवती षष्ठी की स्तुति करके महाराज प्रियव्रत ने षष्ठी देवी की कृपा से यशस्वी पुत्र प्राप्त कर लिया।

हे ब्राह्मन! जो एक वर्ष तक भगवती षष्ठी के इस स्त्रोत को श्रवण करता है,वह संतान हीन मनुष्य सुन्दर तथा दीर्घजीवी संतान प्राप्त कर लेता है। जो एक वर्ष तक भक्ति पूर्वक देवी षष्ठी की विधिवत् पूजा करके इस स्त्रोत का श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।महावंध्या स्त्री भी इसके श्रवण से प्रसव के योग्य हो जाती है और वह भगवती षष्ठी की कृपा से वीर,गुणी, विद्वान, यशस्वी तथा दीर्घायु संतान उत्पन्न करती है। यदि कोई स्त्री काकवंध्या अथवा मृतवत्सा हो तो भी वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके षष्ठी देवी के अनुग्रह से संतान प्राप्त कर लेती है।
सन्तान के व्याधिग्रस्त हो जाने पर यदि माता पिता एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो षष्ठी देवी की कृपा से वह बालक रोग मुक्त हो जाता है।

श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेsष्टादशसाहस्रयां संहितायां नवमस्कन्धे नारायण नारद संवादे षष्ठयुपाख्यानवर्णनं नाम षट् चत्वारिंशोsध्याय:

आर्यावर्ती सरोज “आर्या “
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)