कोरोना के दौर में मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहना सबसे बड़ी जरूरत बन गयी है
संपादकीय | सुसाइड प्रिविंशन इन इंडिया फाउंडेशन की पिछले दिनों आई सर्वे रिपोर्ट ना केवल गंभीर चेतावनी देती है अपितु देश में लोगों की बदलती मानसिकता को भी दर्शाने वाली है। कोरोना के कारण लोग अवसाद या यों कहें कि डिप्रेशन के तेजी से शिकार हो रहे हैं। डिप्रेशन की यह समस्या हमारे यहां ही नहीं अपितु समूचे विश्व को अपने आगोश में लेती जा रही है। केवल अंतर यह है कि हमारे यहां डिप्रेशन या यों कहें कि मनोरोग के इलाज की जिस तरह की व्यवस्था या आधारभूत संरचना होनी चहिए वह अभी कोसों दूर है। दुनिया में सबसे अधिक आत्महत्या करने वाले देशों में हमारा देश शुमार है। कोरोना के इस दौर में जिस तरह से लोग अवसाद के शिकार होते जा रहे हैं वह अपने आप में गंभीर चिंता का विषय है।
पिछले दशकों में जिस तरह से हमारी संयुक्त परिवार व्यवस्था छिन्न-भिन्न होने लगी है, जिस तरह से रहन-सहन व जीवन शैली बदली है उससे डिप्रेशन के मामले कुछ ज्यादा ही तेजी से बढ़ने लगे हैं। पति-पत्नी दोनों के ही नौकरीपेशा होने, एक ही बच्चा होने, बच्चे को बचपन के स्थान पर प्रतिस्पर्धा में धकेलने और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उधार संस्कृति डिप्रेशन के प्रमुख कारकों में शामिल है। घर, वाहन या अन्य के लिए लिए गए लोन की किश्तें तनाव का कारण बन रही हैं। आय के साधन सीमित होने की संभावना से तनाव हो रहा है, कुंठा बढ़ रही है। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के चलते भविष्य को लेकर अधिक चिंता होने लगी है। व्यक्ति की सोच में बदलाव आने लगा है तो उसकी प्राथमिकताएं भी बदलने लगी हैं। दरअसल कोरोना ने सामूहिकता के स्थान पर व्यक्तिगतता को बढ़ावा दिया है। जिस एकाकीपन को सजा माना जाता था वह कोरोनाकाल में जीवन रक्षक बन गई है। एक जो सबसे बड़ा कारण बनता जा रहा है वह है नकारात्मकता का प्रसार। कोरोना की इस संकट की घड़ी में थोड़ी भी सकारात्मकता रहती है तो वह बड़ा संबल होगी।
इंडियन साइक्रेटिक सोसायटी ने अपने अध्ययन में यह पाया है कि लॉकडाउन में ढील के बाद भी लोगों के मन में भविष्य को लेकर अनिश्चितता और चिंता का भाव उन्हें डिप्रेशन की ओर धकेल रहा है। अप्रैल में किए गए एक सर्वे में शामिल लोगों में 40 फीसदी लोगों को अवसादग्रस्त पाया गया। हो सकता है यह अतिश्योक्तिपूर्ण आंकड़ा हो पर चिंता व विचार का विषय अवश्य है। कोरोना के इस दौर में अब मनोचिकित्सकीय सुविधाओं के विस्तार की अधिक आवश्यकता हो गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो एक मोटे अनुमान के अनुसार 30 लाख लोगों पर एक मनोचिकित्सक व कुछ मनोवैज्ञानिक हैं वहीं अमेरिका में 30 लाख लोगों पर 100 मनोचिकित्सक व 300 मनोविज्ञानी हैं। यूरोपीय देशों में भी स्थिति में सुधार है तो दुनिया के देशों में इंग्लैण्ड ने पहल कर के इसके लिए अलग ही मंत्रालय व मंत्री बना दिया है ताकि डिप्रेशन के कारण आत्महत्याओं को रोका जा सके। लोगों की सही तरीके से काउंसलिंग हो सके। कोरोना के हालातों में अब दुनिया के देशों में मनोचिकित्सकों और मनोविज्ञानियों की अधिक आवश्यकता हो गई है और इस दिशा में विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित देशों की सरकारों को ठोस प्रयास करने होंगे।