Tuesday, July 2, 2024
साहित्य जगत

बस्तो का बढ़ता बोझ

बच्चे राष्ट्र का भविष्य है और प्रत्येक दृष्टि से प्रत्येक क्षेत्र में उनकी श्रेष्ठ उन्नति हो ये समाज और परिवार का कर्तव्य है। आज का विषय अत्यन्त मार्मिक और चिंताजनक है।

बस्ते को कंधे पर टांग नौनिहाल हँसते खेलते विद्यालय जाते थे वो दिन अब लुप्त हो गए कारण केवल एक मानसिक सोच और दिखावा । नौनिहालो की उतरी सूरते फीकी मुस्कान बहुत कुछ कह रही है बड़े विद्यालय मे प्रवेश का मतलब आजकल सफलता और रुतबे से जुड गया है। बच्चे तो समान है घर से चले विद्यालय फिर घर वापसी। किताबों की बढ़ती संख्या घटता ज्ञान हमारे नौनिहालो के मुस्कुराने का हक छीन चुका है। विद्यालय और शिक्षक भी व्यवसायी बन गये है कहाँ रुकेगा ये सब यह अत्यंत चिंताजनक है। विद्यालय में कक्षाएं अगर तीसरी छठी मंजिल पर है तो भी बच्चा उतना भारी बस्ता लेकर सुबह सुबह सीढ़ी चढ़ता है कुली से भी ज्यादा बोझ अपनी कम उम्र मे ढ़ोने को विवश हैं ।आप ने कुछ बोला नही कि उपदेश शुरू बच्चे को मजबूत बनाइये ‘फलाना ढ़िमाका। उन्हें मजबूत बनाने के और भी तरीके है कुली ही हम क्यों बनाए।
विद्यालय हर हाल मे अपनी मनमानी करते हैं हम विवश है। क्योकि हमें समाज को बताना है कि हमारा बच्चा फलाने विद्यालय मे पढ़ता है चाहे उस विद्यालय मे प्रवेश के लिए रात के 3 बजे से लाइन मे ही क्यूँ ना लागे या किसी का एहसान लेना पड़े | आश्चर्य जनक तो ये है कि बोझ बढ़ता जा रहा है और फिर भी बच्चो मे खेल नैतिक शिक्षा, डिबेट निबंध प्रतियोगिता , बहुमुखी विकास आदि का कही अता पता ही नही बस महंगे-महंगे प्रोजक्ट बन रहे है। बच्चों में आपसी सद्भावना और आपस में चीजों को बांटने की प्रवृत्ति घटती जा रही है बच्चे क्रोधी बन गए हैं क्योंकि वह चिड़चिढ़े हो गए हैं ।
हिंदी की या अन्य अध्यापिका बताने मे असमर्थ हैं की व्याकरण लाये या मुख्य पुस्तिका ऐसे ही अंग्रेजी, सामाजिक विज्ञान सभी का यही हाल है, बच्चे सब भर के ले जाते है। नतीजा बस्ता भारी। जब आप कुछ कहेंगे तो कहेंगे आपका बच्चा टाइम टेबल फॉलो नहीं करता है। हर हाल में गलती आपकी। थके बच्चे, असंतुष्ट बच्चे यह उनके सर्वांगीण विकास को रोक देता है।
हर वर्ष पुस्तकें बदलना पर्यावरण के लिए भी खतरनाक है । हमें एक अच्छी बात शुरू करनी है तो हमे उससे जुड़े कई पहलू पर भी काम करना ही होगा लेकिन शुरुआत तो करनी ही है। परिवारों का विघटन रुकना ही चाहिए। बच्चों के दाखिले की उम्र 5 वर्ष के बाद ही करनी चाहिए । छोटी-छोटी कक्षाएं खोलकर बच्चों का बचपन छिना जा रहा है दाखिले की उम्र बढ़ाने से बच्चे घर में रुक कर बच्चे परिवार से संस्कार सीख पाएंगे समय से पौष्टिक खाना और फल खा पाएंगे जिससे उनका शरीर मजबूत होगा। पीठ दर्द, कंधे का दर्द छोटी सी ऊमर मे मधुमेह, जवानी मे ही दिल का दौरा आदि सब कही न कही जिंदगी के हर पहलू से जुड़े हुए है। क्योंकि शुरुआत से ही स्वास्थ्य आपका बस्ते में बंद हो गया। जब मैं पढ़ती थी तो जब लंच का समय होता था तो बहुत से बच्चों की दादी या मां आती थी और उन्हें खाना खिला कर जाती थी अपने हाथ से और लंच 1 घंटे का होता था चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए उसका प्रयोजन सिर्फ यह था कि बच्चा खूब अच्छे से खा ले और खेल ले विद्यालय का समय दो भागों में बटा होता था लंच के पहले लंच के बाद। विद्यालय में की जाने वाली हर गतिविधि का बालक पर बहुत ही महत्वपूर्ण असर पड़ता है ।हम प्रार्थना कौन सी करते हैं इससे भी हमारा चरित्र निर्माण होता है सोचिए हम सालों साल *हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें* या इसी तरह की और अन्य प्रार्थनाएं कर के बड़े हुए उनका असर आज भी हमारे मन मस्तिष्क पर है और विद्यालय की समाप्ति पर भी प्रार्थना होती थी मुझे आज भी याद है
प्रकृत्यां सुरम्यमं विशालं प्रकामम ।
सरिततार हारै ललामं निकामं ।
हिमाद्री ललाटे पदे चैव सिंधु।
इदम् भारतम् में सदा पूज्यनीयं।
विद्यालय में की जाने वाली हर एक गतिविधि का असर बालक के चरित्र निर्माण पर पड़ता है।


हमें भी कोई फर्क नहीं पड़ता बस विद्यालय बड़ा और नामचीन हो बाकी सब गया भाड़ में हम कहां जा रहे हैं बस पैसे- पैसे और पैसे इसी की दौड़ मची हुई है हर जगह हर क्षेत्र में बस्ते के बोझ पर कितनी बार बहस हुई लेकिन नतीजा वही ढांक के तीन पात आज भी बच्चे बोझा ही ढ़ो रहे हैं। आज के बच्चे कुली बन चुके हैं बचा खुचा समय मोबाइल कब का लील चुका है। समस्याएं गंभीर हैं, विकट है ।भविष्य में परिणाम गंभीर होंगे हल हमें हर हाल में ढूंढना ही होगा बच्चों को हंसता बचपन लौटना ही होगा।
किताबों का गिरता स्तर तो हम आप जान ही रहे हैं कविताएं ऐसी हैं, साहित्य ऐसा है ,कि बच्चों को उनसे कोई सीख नहीं मिल रही है लेकिन बस्ते का बोझ हर रोज बढ़ रहा है। पन्ना धाय का त्याग, श्रवण कुमार, ध्रुव प्रहलाद, वीर सावरकर, आदि हमारी नैतिक शिक्षा के पाठ ज़रा सोचिए उसको पढ़ने के बाद मां के इस स्वरूप की कल्पना अगर मस्तिष्क में है तो आप कोई गलत काम क्या कर पाएंगे राष्ट्र के लिए। इन कहानियों का असर बच्चे के मन मस्तिष्क पर इतना गहरा प्रभाव डालता है कि बच्चे का चरित्र निर्माण उसी क्षण से प्रारंभ हो जाता है हम क्यों नहीं समझते कि हमारे पाठय पुस्तको की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हैं आजकल कचरा ही पढ़ाया जा रहा है , वह भी खूब वसूली करके।
विद्यालय मे बस दाखिलो कीसंख्या बढ़ती जा रही है और हमारी जेबो पर बोझ।हमे पता ही नही हम अपना बच्चा ही नहीं पढ़ा रहे है आप उनके संस्थान की असंख्य चीजे अनभिज्ञता मे प्रायोजित कर रहे हैं। जैसे एक कोचिंग संस्थान 5 बच्चे चुनता है जो काबिल तो हैं पर फीस नहीं दे सकते मगर पोस्टर बॉय बन सकते हैं तो वे प्रवेश परीक्षा के बाद जब आपको फीस में छूट बताते हैं उसी में वह 5 बच्चों की पूरी वसूली हमसे कर लेते हैं और उन्हें छात्रवृत्ति प्रदान कर देते हैं और और यह खेल खुलेआम चल रहा है सोचिए 35 लाख इंजीनियरिंग का खर्च उससे पहले आप 20 -25 लाख कोचिंग का खर्च उठाएंगे और डॉक्टरी की पढ़ाई का तो पूछो ही मत । विद्यालयों द्वारा ही निश्चित की गई दुकानों से आपको सामान लेना सब कुछ बहुत सुनियोजित है एक पूरा चक्र है हम और आप बस कठपुतली आखिर यह सब कब बंद होगा और कैसे हमारा आपका 1 या 2 वर्ष का नुकसान अवश्य होगा लेकिन इसे हमें ही बंद करना होगा जब तक इन दोनों कोर्स में दाखिले एकदम बंद नहीं हो जाएंगे इनके दिमाग ठिकाने नहीं आएंगे इतने पैसे देने के बाद भी वह पढ़ाते नहीं है जैसा कि उन्हें पढ़ाना चाहिए आपने बोला नहीं कि आप ब्लैक लिस्टेड। सब मिले हुए हैं। नई शिक्षा नीति निसंदेह स्वागत योग्य है लेकिन सभी विद्यालय नेताओं के ही तो है। तो वो यह नीति लागू होने कैसे देंगे समस्या यह है बदलाव लाने का ख्याल ही असंभव लगता है मगर उम्मीद पर दुनिया कायम है। यह तभी ठीक होगा जब हम सब एक या दो साल का नुकसान स्वयं उठाने को तैयार हो तभी ये लूट बंद होगी और ये हमारे आने वाले युवा अवश्य करेगे यह मुझे दिख रहा हैं‌।

स्वलिखित मौलिक लेख
शब्द मेरे मीत
डाक्टर महिमा सिंह
लखनऊ उत्तर प्रदेश