Tuesday, July 2, 2024
साहित्य जगत

संधियाँ

मित्र, मेरे शब्दों में मिठास नहीं
नीम है ,
जब-जब भी बीमार होगे तुम
मैं तुम्हें नीम पिलाऊँगी, खिलाऊङी, लगाऊँगी
ये अधिकार है मेरा
अधिकार है कि –
मित्रता में संधियाँ नहीं होतीं
संधियाँ, वक़्त के पीले पड़ चुके पन्नों पर
बेबसी के वे हस्ताक्षर हैं
जो वक़्त, बेवक्त हृदयों में शूल से धँसते हैं
संधियाँ केवल संधियाँ नहीं होतीं
वे हमसे हम ही को छीन लेने का षडयंत्र हैं
संधियाँ, युद्ध और परिणाम से पहले
ठहरे समय का वह अनमयस्क पल है
जब भी बीतकर लौटेगा
पहले से अधिक होने वाले विनाश का कारण बनेगा
संधियाँ मृत हो चुके मैत्री भाव के वे प्रेत हैं
जो लपलपाती चीभ लिए घूमते
पशुता के देवता के चरणों में उल्टे पड़े हैं
खौफ से भरे हुये
इनके तर्पण के लिए कोई गंगा नहीं बनी
वे जब भी निकलते हैं अपने छिपे कोटरों से
और अधिक सख्ती के साथ कैद किए जाते हैं
संधियों को हवा नहीं मिलती
संधियों को चैन नहीं मिलता
ये अपने बनते जाने की प्रक्रिया में भी
कभी पूरी नहीं होतीं
टूटती रहती हैं
रात-दिन, पल-दर पल
हित अहित से परे
संधियाँ दिखने को भले अपने स्वरूप में भली लगें
पर…
ये किसी की सगी नहीं होतीं
न किसी देश की
न किसी शहर की
न किसी रिश्ते की
तुम्हारी भी नहीं होंगी
भले आज तुम एक और सफ़ेद कागज़ पर
मेरे हस्ताक्षर ले लो!
पूनम मनु
मेरठ (उत्तर प्रदेश)