Saturday, April 20, 2024
साक्षात्कार

भाषा ही शक्ति तो पहले भी थी, उसे पहचाना अब जा रहा है: प्रो. संजय द्विवेदी

भारतीय जनसंचार संस्थान’ (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रोफेसर संजय द्विवेदी को 14 साल से ज्यादा सक्रिय पत्रकारिता का अनुभव है। सक्रिय पत्रकारिता के बाद वह शिक्षा के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। वह ‘माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी‘ (एमसीयू) में तकरीबन 10 साल तक मास कम्युनिकेशन विभाग के अध्यक्ष रहे हैं। प्रस्तुत है उनके साक्षात्कार के कुछ अंश

पत्रकारिता में आना कैसे हुआ? अपने आरंभिक जीवन और पहली नौकरी के बारे में कुछ बताएं

हमेशा से मैं इस बात को लेकर क्लियर था कि मुझे पत्रकार बनना है। इसी विषय में मैंने मास्टर्स की डिग्री भी ली है। पिताजी हिंदी से जुड़े हुए थे तो घर का परिवेश ही ऐसा था कि बहुत कम उम्र में लिखने लग गया था। बारहवीं तक आते-आते तो मेरे लेख प्रकाशित होने लग गए थे।

पिताजी साहित्य की दुनिया से जुड़े थे तो मैंने भी सोचा कि क्यों न इसी भाषा की दुनिया से मेरा जुड़ाव रहे? बस, यही सोचकर पत्रकार बन गया। इसके बाद सबसे पहले ‘दैनिक भास्कर‘ के साथ काम शुरू किया, उस समय मैं ‘एमसीयू‘ से मास्टर्स कर रहा था।

दरअसल, किसी पत्रकार की शादी थी और वह छुट्टी पर था। संयोग से मुझे उसकी जगह बुलाया गया। दो महीने मैंने अच्छा काम किया और बाद में मुझसे कहा गया कि अगर आप चाहें तो यहां काम करते रह सकते हैं।

इस प्रकार मुझे पहली नौकरी मिली। इसके बाद मैं ‘स्वदेश‘ रायपुर का संपादक भी बना। उसके बाद ‘नवभारत‘ के साथ काम किया। जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बना तो एक बार फिर ‘दैनिक भास्कर‘ के साथ काम करने का मौका मिला। उसके बाद रायपुर चला गया और ‘दैनिक हरिभूमि‘ अखबार में काम किया और ये यात्रा चलती रही।

आपने पत्रकार के बाद एक शिक्षाविद के रूप में काम किया। पहला ऑफर कैसे मिला था?

जब मैं रायपुर में था तो उस समय कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय शुरू हो रहा था। डॉक्टर जोशी वहां कुलपति बनकर आए और मेरे छात्र जीवन से वह जुड़े हुए थे।

दरअसल, जब मैं माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी में पढता था तो वह उस समय वहां कुलसचिव थे। उन्होंने ही मेरी नियुक्ति की और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय में नियुक्त होने वाला पहला शिक्षक मैं ही था। वहीं पत्रकारिता विभाग का अध्यक्ष भी मुझे बना दिया गया।

इसके बाद साल 2009 में माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर के पद पर मेरी नियुक्ति हुई। 10 साल तक मैं वहां जनसंचार विभाग का अध्यक्ष भी मैं रहा और बाद के दिनों में कुलसचिव भी बनने का सौभाग्य मिला।

थोड़े समय के लिए प्रभारी कुलपति बनने का भी मौका मुझे मिला और वर्तमान में जैसा कि आप देख रहे हैं कि मुझे ‘आईआईएमसी‘ के महानिदेशक की जिम्मेदारी दी गई और उसे पूरी निष्ठा से निभाने की कोशिश कर रहा हूं।

पिछले कुछ वर्षों से हिंदी को सम्मान मिल रहा है, वहीं रीजनल भाषाओं में भी मीडिया आगे बढ़ रहा है। आप इसे किस तरह से देखते हैं?

मुझे ऐसा लगता है कि प्रभाव और अवसर तो हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं में ही है। आज अगर आप दस बड़े चैनल या अखबार गिनें तो उनमें हिंदी के ही सबसे अधिक होंगे। हमारे पास समृद्ध भाषाएं हैं। बांग्ला, मलयालम जैसी भाषाओं में शानदार और बेहतरीन काम हुए हैं। तेलुगु और कन्नड़ के साथ भी ऐसा ही है।

भाषा ही शक्ति तो पहले भी थी, लेकिन उसे पहचाना अब जा रहा है। आप मुझे बताइए कि क्या अंग्रेजी बोलकर आप इस देश में कहीं वोट मांग सकते हैं? नहीं! बस यही भाषा की ताकत है।

मुझे ऐसा लगता है कि हमें आज ही ये सोचना होगा कि 2040 का भारत कैसा होगा? हम उस समय किन भाषाओं में बात कर रहे होंगे? आज रिसर्च भी यही कह रही है कि आने वाला समय हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं का ही है।

एक लंबे समय से गुलामी का दौर जो रहा है, बस उसी ने हमारे दिमाग में अंग्रेजी डाल दी है और उसका महत्व बढ़ा दिया है, वरना हिंदी और प्रादेशिक भाषाएं कहीं अधिक समृद्ध हैं।

डिजिटल के बढ़ते प्रभाव को लेकर क्या आपको ऐसा लगता है कि वर्तमान में हिंदी पत्रकारों के लिए यह चुनौती बना है?

डिजिटल को मैं चुनौती भी मानता हूं और उससे अधिक अवसर भी मैं मानता हूं। जैसे कि आप देखिए कि आज सभी दिग्गज वो चाहे टीवी से हों या प्रिंट से हों, आज डिजिटल पर हैं।

उन सबने इस माध्यम को अपनाया है। अगर आज आप टॉप 10 न्यूज पोर्टल्स को देखेंगे तो पाएंगे कि जो पहले से स्थापित मीडिया घराने हैं, सबसे अधिक दर्शक उन्हीं के पास हैं। आज हमारा डिजिटलीकरण लगभग पूरा हो गया है।

आज आप देखिए कि कई केंद्रीय विश्वविद्यालय तो सिर्फ मीडिया को ही समर्पित हैं। आज सिर्फ प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है। वो समय गया जब आप हिंदी के अच्छे जानकार होते थे और पत्रकार बन जाते थे।

आज पत्रकारिता अपने आप में एक सशक्त माध्यम है और अब इसमें भी प्रशिक्षण की जरूरत है। एक समय में बड़े-बड़े संपादकीय लेख लिखे जाते थे, लेकिन आज सिर्फ 500 या आप कहिए कि 300 शब्दों में अपनी बात कहने का चलन है।

कई ऐसे लोग हैं, जो हर माध्यम में प्रसिद्ध हैं तो ऐसा नहीं है कि लोगों की कमी है, बस उन्हें प्रशिक्षित करने की जरूरत है। एक समय जब टीवी आया तो उस समय कहा गया कि अखबार खत्म हो जाएंगे और उस समय जितने भी लोग टीवी में आए, वो सब अखबार से आए हुए लोग थे।

आज एक पूरी पीढ़ी हमारे पास ऐसी है, जिसने कभी अखबार में काम नहीं किया, जबकि एक समय ऐसा कहा जाता था कि आपको शुरुआत करनी है तो आप प्रिंट से करिए। उसी तरह से आने वाले समय में हमारे पास एक ऐसी पीढ़ी भी होगी, जिसने कभी टीवी में काम नहीं किया होगा।

हाल ही में आपने एक वेबिनार में ओटीटी, फिल्म पत्रकारिता और डिजिटल के भविष्य को लेकर चर्चा की थी। उसके बारे में कुछ बताएं

एक जमाना था जब हम पत्रकारिता शब्द का इस्तेमाल करते थे, उसके बाद शब्द आया मीडिया, उसके बाद इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता, फिर डिजिटल, लेकिन आज ये सारे शब्द पुराने हो गए हैं।

आज जो अनुकूल शब्द है वो है ‘जनसंचार‘, आप देखिए कि पत्रकारिता में नौकरी घट गई हैं, लेकिन संचार में बढ़ गई हैं। टीवी या प्रिंट में हो सकता है कि स्पेस घट गया हो, लेकिन संचार में नौकरी मिल रही है।

नेताओं को ही देख लीजिए। उनका जमीन से संपर्क नहीं है तो वो डिजिटल तौर पर संवाद करने वालों को नौकरी पर रख रहे हैं और वो सफल भी हो रहे हैं।

आज शायद ही कोई ऐसा अभिनेता या अभिनेत्री होगी, जिसके सोशल मीडिया मैनेजर नहीं होंगे। इसलिए एक अलग ‘जनसंचार‘ का माध्यम अपने आप में फलफूल रहा है और लोगों को रोजगार भी दे रहा है।

आज कोरोना ने हमको सिखाया कि इस देश में हेल्थ कम्युनिकेशन पर काम करने वाले लोग नहीं हैं। स्वास्थ्य पर काम करने वाले और लिखने वाले पत्रकार तक हमारे पास नहीं हैं और यही कारण है कि तमाम फालतू खबरें उस बीमारी को लेकर चलाई गईं।

उस समय जिसका जो मन कर रहा था, वो वैसा ही लिख रहा था। टीवी पैनल में आपके पास उस विषय की समझ रखने वाले लोग नहीं थे तो आपको डॉक्टर्स को बुलाना पड़ रहा था।

संचार की ताकत को हमें समझना होगा, आप गांधी और विवेकानंद को देखिए, जिन्होंने अपने जीवन से लोगों को कितना बड़ा संदेश दिया था। मुझे नहीं लगता कि उनसे बड़े कोई जनता से संचार करने वाले हुए होंगे।

पूर्व पीएम अटल बिहारी जी कहते थे कि दुनिया की ऐसी कोई भी समस्या नहीं है, जो संवाद से हल नहीं हो सकती। अब वो संवाद कौन करेगा? वही लोग, जिनको प्रशिक्षण देकर हम तैयार करेंगे। इसलिए हमे इस संचार की दुनिया को समझना होगा और इसे अपनाना होगा।

डिजिटल के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सरकार ने नए आईटी नियम बनाए हैं, जिनमें ट्विटर को लेकर काफी बहस चल रही है। इस मामले में आपका क्या कहना है?

माध्यम कोई भी हो, उसकी हदें तो देश को तय करनी ही होंगी। कोई भी माध्यम देश के कानून और संविधान से बड़ा नहीं हो सकता है। ये जो माध्यम हैं, इनकी अपनी एक आर्थिक और सामाजिक उपस्थिति है और एक मीडिया हाउस से भी अधिक ये ताकतवर हैं। हमारी सरकार उदार है, इसलिए हमारे कानून का ये फायदा उठा रहे हैं।

अमेरिका के पूर्व प्रेजिडेंट ट्रंप का तो इन्होंने अकाउंट ही बंद कर दिया। जिन देशों में तानाशाही है, उन देशों में ये हाथ जोड़कर काम करते हैं और हमारा फायदा उठा रहे हैं। ये अपने इरादों में स्पष्ट नहीं हैं और स्वच्छंदता चाहते हैं। अगर मुझे किसी कंपनी में और मेरे देश में से किसी को चुनना होगा तो मैं देश को सलेक्ट करूंगा।

हम एक स्वयंभू राष्ट्र हैं। अगर ट्विटर अपनी मनमानी करेगा तो देश में संवैधानिक संकट आ सकता है। इस देश में कई मत, सम्प्रदाय को मानने वाले लोग रहते हैं और ऐसे में हम किसी प्लेटफार्म को अपनी मनमानी करने नहीं दे सकते हैं।

गाजियाबाद में एक बुजुर्ग की पिटाई का वीडियो वायरल हुआ, जिसका मकसद दंगे करवाना था और उस फेक एजेंडे में कई पत्रकार भी शामिल थे। क्या आपको लगता है कि आज के समय में पत्रकारों की विश्वसनीयता खतरे में है?

मेरा मत है कि पत्रकार का पहला धर्म है विश्वसनीयता, पत्रकार किसी भी चीज को आगे बढ़ाने से पहले तीन बार जांचता है, लेकिन समस्या आज बढ़ती जा रही है।

एक होता है जर्नलिस्ट और एक होता है एक्टिविस्ट, दुर्भाग्य इस देश का यह है कि जो एक्टिविस्ट है उसने कपड़ा जर्नलिस्ट का पहना है। पत्रकार न्यूज को कवर करता है और ये लोग विचार को आगे बढ़ाते हैं।

आज देश में संकट ऐसा है कि जो नेता के प्रवक्ता का काम है, वो एक पत्रकार कर रहा है। आज ऐसे राजनीतिक विश्लेषक देश में हैं, जिनको सुनते समय आप टीवी की आवाज बंद भी कर देंगे तो लोग बता देंगे कि वो क्या बोल रहा होगा!

ऐसी बुरी स्थिति इस पत्रकारिता की आज से पहले कभी नहीं हुई थी। पत्रकार का अर्थ है लोगों और सत्य का पक्ष रखना, न कि अपना पक्ष रखना। अगर लोगों का पक्ष दिखाने की बजाय हम अगर अपने या किसी पार्टी का पक्ष दिखाने लगे तो आप यकीन मानिए कि इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता है।

आज ये चीज देखने में आ रही है कि एक व्यक्ति का विरोध करते-करते आप पूरे देश का विरोध करने लग जाते हैं। सरकार की योजनाओं के क्रियान्वयन में अगर कोई कमी है तो उसका पक्ष आप बताइए, लेकिन आप सिर्फ एक व्यक्ति को दिन रात कोसते रहें तो ये पत्रकार का धर्म नहीं है।

मेरा मत है कि 99 फीसदी पत्रकार अपने काम में ईमानदार हैं, लेकिन सिर्फ एक फीसदी लोगों ने अपनी ‘पक्षधारिता’ से पूरे मीडिया के पेशे को बदनाम करके रख दिया है।

आप एक अच्छे शिक्षाविद के साथ-साथ अच्छे लेखक भी हैं। लेखन का सिलसिला कैसे शुरू हुआ? उसके बारे में बताइए।

खबरें पवित्र होती हैं और मनुष्य को उसमें न अपनी सोच रखनी चाहिए और न ही अपनी राय देनी चाहिए। आज सबसे बड़ी समस्या यही है कि तमाम पत्रकार न्यूज में ही अपने व्यूज देने लगे हैं। जब मैं खबरों के संसार में था तो जाहिर सी बात है कि अपनी राय को लिखने और लोगों तक पहुंचाने के लिए मुझे एक माध्यम चाहिए था, मैंने उसी के लिए लेखन को चुना।

हमें समाचार और विचार का अंतर समझना होगा। समाचार में सिर्फ तथ्य होता है, लेकिन विचार में आप अपनी बात कह सकते हैं, अपने चिंतन को लोगों तक लेकर जाते हैं। इसके लिए ही मैंने समाचार में घालमेल करने की बजाय स्वतंत्र तौर पर लिखना शुरू किया है। वैसे आजकल मेरे पद की मर्यादा है तो अधिक नहीं लिख रहा हूं।

इसके अलावा मैं आपको यह भी बता दूं कि मुझे लिखने में सुख प्राप्त होता है। किसी पुरस्कार या किसी की तारीफ के लिए मैं नहीं लिखता, मुझे ऐसा अहसास होता है कि लिखकर मैं समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहा हूं।

हाल ही में ‘आईआईएमसी‘ ने अपनी दो शोध पत्रिकाओं को दोबारा लांच किया है। उनके बारे में कुछ बताएं।

भारतीय जनसंचार संस्थान’ (IIMC) की प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं ‘कम्युनिकेटर’ और ‘संचार माध्यम’ को रिलांच हमने किया है। आप कह सकते हैं कि विश्व स्तर के जो जर्नल्स होते हैं, उनको देखकर हमने उसी तरह से इनका प्रकाशन किया है। ‘कम्युनिकेटर’ हर तीन महीने में आपको मिलेगी और डॉक्टर वीरेंद्र कुमार इसके संपादन का कार्य देख रहे हैं।

इसके अलावा ‘संचार माध्यम’ साल में दो बार उपलब्ध होगी और इसके संपादन का जिम्मा डॉक्टर प्रमोद कुमार जी को सौंप दिया गया है।

इन दोनों पत्रिकाओं की एक महान परंपरा रही है, इसलिए एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि विश्व स्तर के शोध इनमें प्रकाशित किए जाएं। इसके लिए अन्य विश्वविद्यालयों के प्राध्यापकों को भी हमने संपादक मंडल में शामिल किया है।

कोरोना महामारी के कारण शिक्षा का कार्य भी बाधित हुआ है। ‘आईआईएमसी‘ ने इस दिशा में क्या कदम उठाए हैं?

ये एक वैश्विक संकट था और इससे निपटने की तैयारी उस समय न सरकार के पास थी और न ही हम इसके लिए तैयार थे। शुरू के दिनों में तो इतनी घबराहट थी कि हमारा सत्र विलंब से शुरू हुआ था।

इससे भी बड़ी बात यह है कि डिजिटल माध्यम से बच्चे तो सहज थे, लेकिन अध्यापक शायद नहीं थे, लेकिन धीरे-धीरे हमने इस पर काम करना शुरू किया और चीजें ठीक होना शुरू हुईं। इसका एक बड़ा फायदा यह है कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठे विद्वान व्यक्ति से आप संवाद कर सकते हैं और ऐसा हमने किया भी।

कई केंद्रीय मंत्रियों ने ऑनलाइन जुड़कर काफी अच्छे और ज्ञानवर्धक सत्र हमारे साथ किए। वहीं इसका नुकसान यह है कि संवाद और संचार की जो कला बच्चे के अंदर विकसित होनी चाहिए, वो नहीं हो पाती।

बच्चा सिर्फ कक्षा से नहीं, बल्कि परिसर से भी ज्ञान प्राप्त करता है। एक लघु भारत हमारे यहां है और 35 हजार से अधिक पुस्तकें हमारे पास उपलब्ध हैं। देश के सबसे विद्वान शिक्षक आज हमारे पास हैं। इस संकट की घड़ी में एक निर्णय और हमने लिया और उसके तहत अगर किसी विद्यार्थी के माता या पिता का देहांत कोरोना से हुआ है तो उसकी फीस माफ कर दी जाएगी।

आने वाले समय में फेक न्यूज, तकनीक का गलत इस्तेमाल, एजेंडा पत्रकारिता जैसी चुनौती आने वाली हैं। ‘आईआईएमसी‘ इस दिशा में कैसे विद्यार्थियों को ट्रेनिंग दे रहा है?

किसी भी तथ्य को जांचना और उसके बाद ही उसे प्रकाशित करना, ये ‘आईआईएमसी‘ के हर विद्यार्थी को सिखाया जाता है। हमारा सिर्फ एक ही मकसद रहता है कि हर विद्यार्थी सीखे और उसे हम ट्रेनिंग के दौरान ये अवसर खूब देते हैं। इसके अलावा आपकी हदें और सरहदें आपको पता हों, ये सीख भी उन्हें दी जा रही है।

हर व्यक्ति की अपनी एक सीमा होती है और मुझे लगता है कि एक सीमा से आगे उसे नहीं बढ़ना चाहिए। इसके अलावा पत्रकार कैसे एक समाज के लिए उपयोगी साबित हो सकता है, ये भी हम अपने स्टूडेंट्स को बताते हैं।

इसके अलावा आने वाले सत्रों में आपको पाठ्यक्रम में बदलाव भी दिखाई देंगे। अंत में एक बात मैं आपसे कहूंगा कि जब एक युवा किसी संस्थान में जाता है तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वो संस्थान उससे क्या करवाता है!

अक्सर कई बार ये देखा गया है कि जब कोई व्यक्ति निर्णय लेने की स्थिति में जाता है तो उस समय जरूर वो अपने सिद्धांत का पालन करता हुआ दिखाई देता है। मेरी बस यही कामना है कि मीडिया लोक मंगल के लिए कार्य करे, जनता का पक्ष दिखाए और इस देश की एकता और अखंडता को समृद्ध रखने में एक अहम भूमिका अदा करे।